भात है और दाल नहीं
जीवन है खुशहाल नहीं
पिंजरा था जो टूट गया
बची कोई ढाल नहीं
अपने हाथों आज है क्या
बैट है और बॉल नहीं
कितना रोना कब तक रोऊँ
सर्दी है और शाल नहीं
सूरत की तो कुछ न पूछो
गड्ढे हैं और गाल नहीं
रेज़्यूमी जाने कितनी भेजीं
चिट्ठी आई, कॉल नहीं
दाना चुगने को हूँ तैयार
फैलाता कोई जाल नहीं
क़िस्मत सुधरे, नाचूँ रोज़
आता ऐसा साल नहीं
राहुल उपाध्याय । 22 नवम्बर 2021 । सिएटल
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