डरते-डरते व्हाट्सएप करना अच्छा लगता है
हैं इस युग के हीर-रांझा, ऐसा लगता है
कितने नग़मे, कितने गीत लिखे हैं फिर भी
जो कहना है कहा ही नहीं, बेजा लगता है
आते-जाते मौसम भी तो इतने हैं हरजाई
काम किया, चले गए, धंधा लगता है
सपने भी अपने हैं रात भर के ही साथी
कोई देख न ले उनको डर सा लगता है
कौन आया, कौन गया, क्यूँ ये सोचूँ मैं
रूह को क्या, ख़ाक ही को कंधा लगता है
तेरा-मेरा मिलना ऐसा जैसे आँगन में
खिल उठे कोई पीपल, वैसा लगता है
राहुल उपाध्याय । 27 जुलाई 2021 । सिएटल
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