दो हज़ार उन्नीस में
एक जानलेवा बीमारी ने
जन्म लिया था
जिसकी खबर हमें
दो हज़ार बीस में लगी थी
जब लगी तब भी हम इसके
विनाशकारी प्रभाव को
मानने से मुकर रहे थे
रोकथाम के तरीक़ों से
मुँह मोड़ रहे थे
उन्हें अपनाने में हमें
अपना ही नुक़सान दिख रहा था
कोई भलाई नहीं दिख रही थी
भला ऐसा भी कहीं होता है?
मुँह पर पट्टी बांध लो?
किसी से मिलने न जाओ?
गले न लगाओ?
हाथ न मिलाओ?
शादी में न जाओ?
दाह-संस्कार में न शामिल हो?
रोने को कंधा न दो?
अस्पताल मिलने न जाओ?
हमारी मानवीयता की जड़ें ही ख़त्म नहीं हो जाएँगी?
दो हज़ार उन्नीस में ही
एक और भयानक बीमारी ने जन्म लिया था
भारत में
जिसकी खबर आज तक
कई लोगों तक नहीं पहुँची है
पहुँची भी है
तो वे इसके विनाशकारी प्रभाव को
मानने से मुकर रहे हैं
रोकथाम के तरीक़ों से
मुँह मोड़ रहे हैं
उन्हें अपनाने में उन्हें
अपना ही नुक़सान दिख रहा है
कोई भलाई नहीं दिख रही है
भला ऐसा भी कहीं होता है?
जिन चीजों पर हम विश्वास कर रहे हैं
उन्हें झूठ कैसे मान लें?
हम ख़ुद ही झूठे साबित नहीं हो जाएँगे?
राहुल उपाध्याय । 25 फ़रवरी 2023 । सिएटल
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