--- एक ---
गिरि पर गिरी
धीरे से गिरी
धरा पर गिरी
धीरे से गिरी
न गरजी
न बरसी
नि:शब्द सी
बस गिरती रही
रुई से हल्की
रत्न सी उज्जवल
वादों से नाज़ुक
पंख सी कोमल
बन गई पत्थर
जो कल तक थी कोपल
ज़मीं और आसमां में
यहीं है अंतर
देवता भी यहाँ आ कर
बन जाता है पत्थर
--- दो ---
विचरती थी हवा में
बंधन से मुक्त
धरा पर गिरी
तो हो जाऊँगी लुप्त
यही सोच कर
गई थी सखियों के पास
कि मिल-जुल के
हम कुछ करेंगे खास
लेकिन कुदरत के आगे
न चली एक हमारी
देखते ही देखते
पाँव हो गए भारी
जा-जा के छाँव में
मैं छुपती रही
आ-आ के धूप
मुझे चूमती रही
जब बोटी-बोटी पिघली
तब बेटी थी निकली
सोचा था उसे
तन से लगा कर रहूँगी
जो दु:ख मैंने झेले
उनसे उसे बचा कर रहूँगी
मैं थी चट्टान सी दृढ़
और वो थी चंचल कँवारी
एक के बाद एक
छोड़ के चल दी बेटियाँ सारी
मैं जमती-पिघलती
झरनों में सुबकती रही
कभी क्रोध में आ कर
कुंड में उबलती रही
माँ हूँ मैं
और जननी वो कहलाए
कष्ट मैंने सहे
और पापनाशिनी वो कहलाए
ज़मीं और आसमां में
यही है अंतर
यहाँ रिसते हैं रिश्ते
वहाँ थी आज़ाद सिकंदर
--- तीन ---
ज़मीं और आसमां में
यही है अंतर
परिवर्तन का सदा
धरती जपती है मंतर
आसमां है
जैसे का तैसा ही कायम
धरती ही रुप
बदलती निरंतर
जो भी यहाँ
आया है अब तक
लौट के गया
कुछ और ही बन कर
चाँद भी जब से
इसके चपेटे में आया
ख़ुद को बिचारे ने
घटता-बढ़ता ही पाया
सिएटल,
22 नवम्बर 2008
Sunday, November 23, 2008
मर्म बर्फ़ का
Posted by Rahul Upadhyaya at 7:30 AM
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Labels: intense, March2, nature, relationship, TG
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8 comments:
एक , दो , तीन ....सारे एक से बढकर एक। बधाई इतने सुंदर रचना के लिए।
बहुत अच्छी लगीं आपकी कविताएं !
घुघूती बासूती
बुरी नहीं राहुल कवितायें। पहली वाली ज़्यादा अच्छी लगी। कैसे हैं आप? कोई ख़बर नहीं कई दिनों से। फ़ोन की कोशिश की थी, बाद में फिर करूँगी कभी...
beautifully written, I enjoyed reading all three. I am no judge of poetry, but they seem to say a lot more than what is apparent.
बहुत अच्छा लिखते हैं आप.
डा.रमा द्विवेदी said..
बहुत खूब शब्द-चित्र खीचे हैं आपने ...बहुत बहुत बधाई...
Youu know who this is, right? I think these are one of your really creative work.
Great Poem! Very touching! Keep writing like this one.
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