Thursday, December 18, 2014

सबसे बड़ा सम्बल


मेरे हर्षोल्लास की कोई सीमा नहीं रही
जब मैंने उसे 
अपनी हाथों की लकीरों में
नाचते-झूमते देखा

मैं उससे खुश था
और वो मुझसे

कितना सरल हो जाता है जीवन
जब दृष्टिकोण बदल जाता है

दुनिया दुनिया है
समाज समाज है
लेकिन इन पर न आपकी
खुशी का दारोमदार है

सबसे बड़ा सम्बल
सबसे बड़ा सच यही है कि
आप आज हैं
दिल धड़क रहा है
खून दौड़ रहा है
सांस चल रही है
चाहे ज़ुबाँ कोई भी भाषा बोले
आँख कोई भी नज़ारा देखे
कान कोई भी धुन सुने
हाथ कुछ भी करे
- शस्त्र उठाए
- शास्त्र पढ़े
- प्रोग्राम लिखे
- गोबर थेपे
- घड़े घड़े

दिल को धड़कना है तो धड़कता है
खून को दौड़ना है तो दौड़ता है
सांसों को चलना है तो चलती है

जीवन को चलना है
चलते ही रहना है

कितना सरल हो जाता है जीवन
जब दृष्टिकोण बदल जाता है

18 दिसम्बर 2014
सिएटल । 
513-341-6798

Monday, December 15, 2014

सब एक-दूसरे को आईना दिखाते हैं


सब एक-दूसरे को आईना दिखाते हैं
पर ख़ुद को कहाँ समझ पाते हैं

जो समझे नहीं समझाते हैं
गुरू-साधु-स्वामी कहलाते हैं

रात की रोशनी में सब हसीन है
दिन में दाग़ कहाँ छुप पाते हैं

हम भी आपसे शरीफ़ होते
पर हम न थोड़ा शरमाते हैं

चलो चलें कहीं और चलें
कहें राहुल जो रूक जाते हैं

Thursday, December 4, 2014

मेरे घर के आसपास अभी भी ज़मीं बर्फ़ है

मेरे घर के आसपास अभी भी ज़मीं बर्फ़ है

तेरी चाहत, तेरी आरज़ू क्या सचमुच इतनी सर्द है?

कमरों में 
कैमरों में
अपने-अपने वाहनों में
हर कोई  क़ैद है
हाड़-माँस का पुतला ढूँढा तो मिलता होमलेस है

रोशनी है
चकाचौंध है
पेड़ हैं
पेड़ पर लगी लाईट्स हैं
देते हैं दान भी
पर क्या मन में नहीं कोई खोट है?

इधर
ठिठुरता है दिल
सिकुड़ता है दिमाग़ 
कटकटाते हैं दाँत
और उधर 
रेस्टोरेंट से आती है 
छुरी-कांटों की
फ़ाईन-चाईना से
खटर-पटर की आवाज़
और
हड्डियों को चीरता
डीन मार्टिन का गीत
"लेट ईट स्नो, लेट ईट स्नो, लेट ईट स्नो"

4 दिसम्बर 2014
सिएटल । 513-341-6798

Wednesday, December 3, 2014

पतंग सा चाँद

पतंग सा चाँद

जाड़ों की रात में 
पत्ते रहित पेढ़ की
सूखी टहनियों में 
फँसा था

फँसा क्या था
फँसाया गया था
मेरी रचनात्मक नज़रों द्वारा

करूँ भी तो क्या करूँ?
कैमरे में 
ऐसी ही तस्वीरें क़ैद की जाती हैं
कलर के ज़माने में 
श्वेत-श्याम प्रिंट की जाती हैं
बड़ी महंगी फ़्रेम में जड़ दी जाती हैं
और
किसी रईस के घर के आधे-अधूरे रोशन गलियारे की शोभा बन जाती हैं
हाथ में पेग लिए लोग उसका मूल्याँकन करने लग जाते हैं

और उधर
चाँद ढलता रहता है
टहनियाँ ठिठुरती रहती हैं
तथाकथित कला के क़द्रदानों के वाणिज्य से अपरिचित-अनभिज्ञ-अनजान

3 दिसम्बर 2014
सिएटल | 513-341-6798

Monday, December 1, 2014

बर्फ़ चली गई और सर्दी छोड़ गई

बर्फ़ चली गई और सर्दी छोड़ गई

मायनस 10 डिग्री सेल्सियस में ठिठुरता छोड़ गई

चलो, चलें कहीं और चलें जहाँ माहौल हो गर्म
मन-माफ़िक वातावरण के पीछे भागना मेरा धर्म

डार्विन का भी सिद्धांत कहे जो भागे वो बुलन्द
अमरीका जन्मा, भारत पनपा, भगोड़ा ने किया देश स्वतंत्र

नई पीढ़ी हमेशा आगे भागी
बूढ़े रहे फ़िसड्ड
जड़ से जुड़े जड़ कहलाए 
और धीरे-धीरे जाए सड़

नाभि ना भी होती तो भी क्या न होता मेरा जन्म?
होता तो पर अपनी ही जड़ से मैं रहता अनभिज्ञ-अचेत

इसी नाभि ने
इसी जड़ ने
मुझे बार-बार दिया झकझोड़
जब-जब मैंने नया रिश्ता जोड़ा
और पिछले को दिया पीछे छोड़

1 दिसम्बर 2014
सिएटल । 513-341-6798

Tuesday, November 25, 2014

वो बारह प्राणी

बहार आई दहलीज़ तक मेरी

कल रात
और मैं सोता रहा, सोता रहा

हवा खटखटाती रही 
दर रात भर
और मैं सोता रहा, सोता रहा

घटा बरसी
ख़िज़ा बरसी
पत्ते सारे बिछ गए
नोच-नोच के डाल से
पल-छिन सारे छीन गए
और मैं सोता रहा, सोता रहा

अब माथे हाथ दे के मैं सोचूँ 
ये क्या हुआ, कैसे हुआ

ये क़ानून-क़ायदे, ये नियम
पतझड़ का होना भी ज़रूरी
काम-काज-मेहनत के साथ
मेरा सोना भी ज़रूरी

हर बार यही होता रहा
संविधान का हवाला देता रहा
वो बारह प्राणी तुम्हारे ही थे
तुम्हारे नगर के, तुम्हारे हितैषी 

अब माथे हाथ दे के मैं सोचूँ 
ये क्या हुआ, कैसे हुआ

बहार आई दहलीज़ तक मेरी
कल रात
और मैं सोता रहा, सोता रहा

25 नवम्बर 2014
सिएटल | 513-341-6798


Saturday, November 22, 2014

रामपाल जैसे कई स्वामी पकड़वाने हैं

हर तरफ़ अब यही अफ़साने हैं
रामपाल जैसे कई स्वामी पकड़वाने हैं

कितनी चतुराई है इन बाबाओं में
पढ़े-लिखे भी लट्टू हो जाए
लाखों-करोड़ों का धन दे-दे के
सोने-चाँदी के महल बनवाए
आश्रम कहलाए जहाँ ऐ-सी पाखाने हैं

नित्यानंद, निर्मल हो या हो रोमपद स्वामी कोई
नेक नहीं लगते इनके इरादे हैं
जब-जब भीड़-भाड़ इकट्ठा करते हैं
धन जोड़ने के हथकण्डे अपनाते हैं
रास्ते बाबाओं के अब जाने हैं

इक धक्का सा लगा है भक्तों को
जैसे-जैसे सच सामने आए हैं
जिनको सद्गुरू समझा था इनने
धर्म के सौदागर नज़र आए हैं
अधर्मियों को अब सबक़ सिखलाने हैं

(कैफ़ी आज़मी से क्षमायाचना सहित)
22 नवम्बर 2014
सिएटल । 513-341-6798

Sunday, November 16, 2014

न तुम होते, न हम होते

न तुम होते, न हम होते

तो फिर कहाँ ग़म होते

'गर होता कोई घर भी कहीं
तो हम न यहाँ सनम होते

दल होता, दलदल होते
झगड़े बड़े विषम होते

हाँ में हाँ मिलाते मगर
ख़्वामख़ाह आपको वहम होते

न रूठता राहुल, न मनता कभी
तो यार भी यारो कम होते

16 नवम्बर 2014
सिएटल | 513-341-6798

Saturday, November 15, 2014

बरस बीते, जीवन बीता

बरस बीते, जीवन बीता
मैंने सिर्फ़ लिखी कविता

रोज़मर्रा की भागदौड़ में 
आगे बढ़ने की होड़-होड़ में 
कथित उत्तरदायित्व के बोझ-बोझ में 
बाप ने था बेटे को भूला
बेटे ने था बाप को भूला

मैंने-तुमने-सबने फूँका
कर्तव्यों का ही चूल्हा फूँका
इनसे बड़ी न कोई पूजा
हाथों ने चरणों को छुआ
कर-कमलों ने दिया आशीष पूरा

जीवन का क्रम यूँही है चलता
फल से ही है बीज निकलता
बीज से ही फल फूलता-फलता
रंग बदलते मौसम हैं आते
पर पहली सी कहाँ रंगत ला पाते

जीवन का निस्तार यही है
विधि का विधान अकाट्य यही है
जो चल पड़ा वो प्राप्य नहीं है
गीता कहे पहने चोला वो दूजा
मुझे लगे वो धोखा व झूठा

15 नवम्बर 2014
(बाबूजी का पहला जन्मदिन, उनके जाने के बाद)
सिएटल | 513-341-6798

Tuesday, November 11, 2014

होता सु-नाता तो सुनाता कोई

होता सु-नाता तो सुनाता कोई
लोरी गाकर सुलाता कोई

तान छेड़े, ताने न मारे
ऐसे मुझे अपनाता कोई

मेहंदी लगे हाथों की खुशबू
सूंघ लेता मैं जो बू लाता कोई

न ग़म होता, न ग़मी होती
हँसता कोई, हँसाता कोई

तलो तले मेले में आज
गोदी में यूँ तुतलाता कोई

11 नवम्बर 2014
सिएटल । 513-341-6798

छू लेने दो मोदीजी के चरणों को

छू लेने दो मोदीजी के चरणों को
कुछ और नहीं भगवान हैं ये
भाजपा के ही नहीं ये नेता हैं
पूरे भारत की शान हैं ये

ख़बरों को पढ़ के न भ्रमित होना
इनमें कहीं कोई खोट नहीं
इन जैसा नहीं कोई दानी है
कर देते सब कुछ दान हैं ये

अच्छों को बुरा साबित करना
राहुल की पुरानी आदत है
इसकी कविता में कोई दम नहीं
कहते बड़े-बड़े विद्वान हैं ये

(साहिर से क्षमायाचना सहित)
11 नवम्बर 2014
सिएटल । 513-341-6798

Sunday, November 9, 2014

छू लेने दो मोदीजी को झाड़ू

छू लेने दो मोदीजी को झाड़ू
कुछ और नहीं हैं नाटककार  हैं ये
इन महाशय को हमने चुना है
चूना लगाने के हक़दार हैं ये

गुंडों को नेता बनाना
वोटर की पुरानी आदत है
मोदीजी को भी न संत समझ
माना कि नहीं गुनहगार हैं ये

मत पा के हुए ये मतवाले
मस्ती का नज़ारा तुम देखो
भेड़ और बकरी की टोली है
कहते जिसे सरकार हैं ये

(साहिर से क्षमायाचना सहित)
9 नवम्बर 2014
सिएटल । 513-341-6798

Friday, November 7, 2014

कब किसने किसको घर जाते देखा

कब किसने किसको घर जाते देखा
सबने सबको बस इधर आते देखा

कोई होता घर पर तो घर भी होता
बेटा-बहू सबको हमने कमाते देखा

सब के सब हैं अपनी धुन में मगन
न सुनते किसी को न सुनाते देखा

जहाँ हो अपने, वहीं लगता है मन
मगर किसने किसको अपनाते देखा

बड़ा सा घर है और कोई बड़ा नहीं है
बच्चे बढ़े, तो उन्हें भी कदम बढ़ाते देखा

7 नवम्बर 2014
सिएटल । 513-341-6798

Monday, November 3, 2014

डूबता सूरज

डूबता सूरज सुंदर है
झड़ते पत्ते लगते प्रियकर हैं
ये कैसे 'एम्बुलेंस चेज़र' हैं हम
कि मरणासन्न को देख खुलते 'शटर' हैं

====

डूबता सूरज
डूबता रहा
डूबता गया
और फिर डूब ही गया

लोग कैमरे क्लिक करते रहें
प्रियजन पीठ दिखाकर 'पोज़' देते रहें

किसी ने उसे डूबने से न रोका
किसी ने हाथ बढ़ाकर उठाने का न सोचा

=======

हम सब ज्ञानी-ध्यानी हैं
ज्ञान-विज्ञान की खान हैं

वो डूबा कहाँ?
वो डूबा नहीं

सब माया है
छलावा है
आज गया है
कल फिर आएगा
बस कपड़े 'लॉन्ड्री' में डाले हैं
कल नए कपड़े पहन के आएगा

और नहीं आया
तो और खुशियाँ मनाओ
कि उसे मोक्ष प्राप्त हो गया
सार बंधनों से वो मुक्त हो गया

3 नवम्बर 2014
सिएटल । 513-341-6798

परिणाम चाहे जो भी हो


कल अमरीका में मध्यावधि चुनाव है. मुझे अपनी 10 साल पुरानी लिखी कविता याद आ गई.

डेमोक्रेट्स जीते या रिपब्लिकन्स जीते, हमें क्या
ये मुल्क नहीं मिल्कियत हमारी
हम इन्हें समझे, हम इन्हें जाने
ये नहीं अहमियत हमारी

तलाश-ए-दौलत आए थे हम
आजमाने किस्मत आए थे हम
आते हैं खयाल हर एक दिन
जाएंगे अपने घर एक दिन
डेमोक्रेट्स जीते या रिपब्लिकन्स जीते
बदलेगी नहीं नीयत हमारी

ना तो हैं हम डेमोक्रेट
और ना ही हैं हम रिपब्लिकन
बन भी गये अगर सिटीज़न
बन न पाएंगे अमेरिकन
डेमोक्रेट्स जीते या रिपब्लिकन्स जीते
छुपेगी नहीं असलियत हमारी

न डेमोक्रेट्स के प्लान
न रिपब्लिकन्स के उद्गार
कर सकते हैं
हमारा उद्धार
डेमोक्रेट्स जीते या रिपब्लिकन्स जीते
पूछेगा नहीं कोई खैरियत हमारी

हम जो भी हैं
अपने श्रम से हैं
हम जहाँ भी हैं
अपने दम से हैं
डेमोक्रेट्स जीते या रिपब्लिकन्स जीते
काम आयेगी बस काबिलियत हमारी

फूल तो है पर वो खुशबू नहीं
फल तो है पर वो स्वाद नहीं
हर तरह की आज़ादी है
फिर भी हम आबाद नहीं
डेमोक्रेट्स जीते या रिपब्लिकन्स जीते
यहाँ लगेगी नहीं तबियत हमारी

Thursday, October 30, 2014

कागज़ी दुनिया

कागज़ी दुनिया
कागज़ के लोग
कागज़ है तो वजूद है
वरना आप
सूखे दरख्त से चिपका
एक काँपता हुआ पत्ता है
जो न गिरे
न भरे
बस फड़फड़ाता रहे
इस आस में कि
कब जा के माटी में मिले

किसी न किसी से
कहीं न कहीं से
आपका सम्बन्ध होना ज़रूरी है
किसी गाँव, शहर या देश की
शिनाख्त होनी ज़रूरी है
जन्मतिथि तय करना बहुत ज़रूरी है

कहा जाता है कि
झूठ बोलना पाप है
लेकिन फिर भी हज़ारों
या कहूँ कि लाखों लोग
रोज़ बेधड़क झूठ बोल रहे हैं
जो ठीक से मालूम नहीं
उसे ताल ठोक के कह रहे हैं

माँ तक को याद नहीं कि
आप कब हुए थे तो आपकी क्या बिसात

माँ कहती है कि
सावन का महीना रहा होगा
जन्माष्टमी आने वाली थी
शायद द्वादशी रही होगी
मुझे अच्छी तरह से याद है
उसी रात पड़ोसी का कुत्ता मरा था
और उन दिनों बारिश ने बुरा हाल कर रखा था
सैलाना और शिवगढ़ के बीच बसों का आना जाना बंद हो गया था
तभी तू हुआ था
जा ले आ कोई पचास साल पुराना पंचांग
और लगा ले तू हिसाब

(कितनी दयनीय स्थिति है कि
कितने अजन्मे देवताओं के (देवियों के क्यों नहीं?)
जन्मदिन हमें अच्छी तरह से याद है
और उन्हें हम धूम-धाम से मनाते हैं
और अपने ही परिजनों के जन्मदिन या तो पता नहीं होते या उन्हें हम भूल जाते हैं)

इसी कागज़ के टुकड़े से
कागज़ी सफ़र शुरू होता है

सारा ज्ञान
सारी सरस्वती
हर्फ़ों में समाई हुई है
सफ़ेद पन्नों पर
काले अक्षर हम पढ़ते जाते हैं
कागज़ काले करते जाते हैं
हरे कागज़ कमाते जाते हैं
कुछ काले हो जाते हैं
तो उन्हें सफ़ेद करने के चक्कर में
कुछ और कागज़ी कार्यवाही करने लग जाते हैं

कागज़ी दुनिया
कागज़ के लोग
कागज़ है तो वजूद है
वरना आप भूत हैं

30 अक्टूबर 2014
सिएटल । 513-341-6798

Monday, October 27, 2014

उत्सव आते हैं, उत्सव जाते हैं


उत्सव आते हैं
उत्सव जाते हैं
शुभकामनाओं के संदेश
कट-पेस्ट कर दिए जाते हैं

कब, कहॉं, किसपे क्या विपदा पड़ी
इससे किसीको कोई सरोकार नहीं
कब किसका उद्धार हुआ
किसीको कुछ पता नहीं
कब किसकी कौनसी समस्या का निवारण हुआ
इसे जानने-समझने की भी कोई ज़रूरत नहीं

पहले
पन्द्रह-बीस दिन पहले ही
संदेशे भेज दिए जाते थे
और मिल भी जाया करते थे

और अब?
मजाल है जो
दो दिन पहले भी मिल जाए
जनाब, जिस दिन पर्व होगा
उसी दिन मिलेगा
ताकि कहीं गलती से भी आप
एक दिन पहले
या एक दिन बाद
खुश न हो लें

पहले जब संदेशे भेजे जाते थे
सामनेवाला बड़ी मेहनत करता था
सोच-समझ कर कार्ड ख़रीदता था
एक अच्छी सी क़लम लेकर
अपने हाथों से आपका नाम लिखता था
रंग-बिरंगे लिफ़ाफ़ों पर
त्योहारी डाक-टिकट लगाकर
पोस्ट करता था

फिर डिजीटल युग आया
लेकिन तब भी सामनेवाला
अपने सैकड़ों कॉंटेक्ट्स में से
आपका नाम चुनकर
कम से कम
टू, सीसी या बीसीसी में
जोड़ता तो था

अब तो ये आलम है कि
शुभकामनाएँ दीवार पर चिपका दी हैं
जिसे देखना है वो देख ले
वरना हमें कौनसी गरज पड़ी है
आपको शुभकामनाएँ देने की

उत्सव आते हैं
उत्सव जाते हैं
शुभकामनाओं के संदेश
कट-पेस्ट कर दिए जाते हैं

27 अक्टूबर 2014
सिएटल । 513-341-6798

Monday, October 6, 2014

'जोक' पे 'जोक' सुनाते चलो

'जोक' पे 'जोक' सुनाते चलो
देश की लुटिया डूबोते चलो
राह में आए जो वोटर सभी
सब को उल्लू बनाते चलो
 
एक तरफ़ है ऑटो-रिक्शा
दूजी तरफ़ मंगलयान हमारा
दोनों में नहीं कोई बराबरी
पर ये बराबरी करवाए
सेव से संतरे की तुलना कराते चलो
 
जब कभी भी भाषण मारे
निर्यात के ही लगाए नारे
निर्यात से भला किसका भला हुआ
निर्यात श्रमिक को निचोड़े
देश को बंग्लादेश बनाते चलो
 
अमरीका आए, सब पे छाए
ब्रेन-ड्रेनियों का 'ब्रेन-वाश' किया
'मेक इन इण्डिया' नारा इनका
'बोर्न इन इण्डिया' बाहर भेजना इनको
'ब्रेन-ड्रेन' बढ़ाते चलो
 
6 अक्टूबर 2014
सिएटल । 513-341-6798
(मोदीजी के मेडिसन स्क्वेयर गार्डन में दिए गए भाषण से प्रेरित, भरत व्यास से क्षमायाचना सहित)
=======
जोक = joke
ब्रेन-ड्रेन = brain-drain
ब्रेन-वाश = brain-wash
मेक इन इण्डिया = make in India
बोर्न इन इण्डिया = born in India

Thursday, September 25, 2014

मंगल के दिन मंगलयान मंगल गया

मंगल के दिन मंगलयान मंगल गया
देखते ही देखते
सीधे प्रसारण को देख के
जितने भी थे
(देसी-विदेसी
अड़ोसी-पड़ोसी
विरोधी-अवरोधी)
सब के सब का मन गल गया

गलना ही था
गल ही कुछ ऐसी थी

पर अपना तो भेजा फिर गया
(और इनका भेजा तो फिर आएगा भी नहीं)

ये क्या बात हुई
नमो के मंतर में मदर गूज़ कहाँ से आ गई?
मंगलयान सा सुंदर नाम था चुना
उस में मॉम कहाँ से आ गई?
तत्सम शब्दों के बीच अंग्रेज़ी क्यों घुसा दी गई?

माना कि
सारे वैज्ञानिक
अंग्रेज़ी में पारंगत हैं
गणित-ज्यामिति-भौतिक-रसायन आदि शास्त्र
अंग्रेज़ी में पढ़े हैं

लेकिन स्थिति इतनी भी तो दयनीय नहीं होनी चाहिए
कि बधाई के लिए आपको अपनी भाषा में शब्द ही न मिले
हर्ष और उल्लास भी प्रकट करें तो किसी और की भाषा में करें

और आखिर गर्व भी किस बात का?
इस बात का नहीं कि हम सस्ते में अपने बल-बूते पे वहाँ पहुँच गए
बल्कि इसका कि हम दूसरों का सामान ढोने लायक बन गए

25 सितम्बर 2014
सिएटल । 513-341-6798

Thursday, August 28, 2014

फ़ेसबुक की अपडेट्स

कभी ग़म होता है
तो कभी खुशी होती है
फ़ेसबुक की अपडेट्स
कुछ ऐसी होती हैं
 
वो
जो चहकती थी
महकती थी
बात-बात पे
पोस्ट करती थी
कभी पिकनिक के
कभी राखी के
तो कभी होली के फोटो
पोस्ट करती थी
हर किसी की पोस्ट पे
कमेंट देती थी
हज़ारों फोटो लाईक करती थी
- जब से हाथ पीले हुए हैं
चुप है
 
कभी-कभार एकाध फोटो
पोस्ट कर देती है
जिसमें वो उस नवयुवक के साथ
खड़ी होती है
और एक मुस्कान दे रही होती है
 
रह-रह कर वो गाना याद आता है
- तुम इतना जो मुस्करा रहे हो
क्या ग़म है जो छुपा रहे हो
 
====
 
कभी ग़म होता है
तो कभी खुशी होती है
फ़ेसबुक की अपडेट्स
कुछ ऐसी होती हैं
 
कभी जन्म तो कभी शादी
तो कभी मरण की ख़बर होती है
 
एक ही दिन में
एक ही क्षण में
दो अलग-अलग तरह की खबरें
अब कोई करे भी तो क्या करे
शोक जताए या उल्लास दिखाए?
 
और देखते ही देखते
हम रोबॉट बन जाते हैं
ख़ुद-ब-ख़ुद की-बोर्ड पर अँगूठा थिरकने लगता है
शोक-सम्वेदनाएँ-उल्लास के संदेश निकलने लगते हैं
और एल-सी-डी स्क्रीन की रोशनी के गुल होते ही
अपनी दिनचर्या में खो जाते हैं
 
पहले जब फोन आते थे
या चिट्ठियाँ आती थी
रोज़ के रोज़ इतनी ख़बरें नहीं आती थी
और
फोन करने वाला जानता था कि
माहौल कैसा है
कब कैसी ख़बर देनी चाहिए
तो ऐसी दुविधाएँ नहीं होती थी
 
हम
एक दूसरे को
जानते-समझते थे
 
अब
449 दोस्त हैं
लेकिन नाम के
 
कईयों के बारे में तो यह भी नहीं पता कि
वे कौन हैं
कहाँ रहते हैं
क्या करते हैं
और हम उनसे आखिर जुड़ें तो कैसे जुड़ें?
 
26 अगस्त 2014
सिएटल । 513-341-6798

Sunday, August 24, 2014

अभिषेक

नहाना - एक प्राईवेट क्रिया है
उसे पब्लिक बना दिया गया है
कर्मकाण्ड के पण्डितों ने
क़हर ढा दिया है

घर की बहू-बेटियाँ
जिनकी नज़रें
तौलिया लपेटे पुरूष को देखकर ही
शर्म से झुक जाती हैं
आज
भगवान के वस्त्र उतार कर
उन्हें
दूध-दही-घी-शहद से नहला रहीं हैं

====

अब तुम
तय कर ही लो
कि
ये मूर्ति है
या ईश्वर?

दो मिनट के लिए
इसके सामने
नतमस्तक हो जाते हो
और फिर
इसी के ईर्द-गिर्द
शराब पीते हो
जोक्स सुनाते हो
ठहाके लगाते हो

क्यूँ ज़रूरी था
इन्हें माला पहनाना
धूप देना
अगरबत्ती लगाना
फल-फूल-मेवा चढ़ाना?

24 अगस्त 2014
सिएटल । 513-341-6798

Thursday, August 21, 2014

Modi's 2nd Symphony

इतनी न मुझसे तू आस लगा
कि मैं एक पी-एम बेचारा
कैसे किसी का सहारा बनूँ
काम करे सी-एम सारा

मैं गुजरात राज्य का था मुख्यमंत्री
मेरे राज में राज्य ने की बहुत तरक्की
टाटा से पूछो, अम्बानी से पूछो
हर उद्योगपति का भरा मैंने भंडारा

है यू-पी प्रांत में कितने अपराधी
दिन-रात करे जो मनमानी
सहारनपुर जला, मुरादाबाद फ़ूँका
और मैंने बस भाषण मारा

माना कि आज मैं हूँ प्रधानमंत्री
हर बंदे की मुझसे है आस बँधी
पर अखिलेश कहीं, तो कहीं ममता है जमी
इन सबको हटाओ तो हटे कुकर्म सारा

इस बार है विधानसभा की तैयारी
हर मंच से सुनोगे मेरी लफ़्फ़ाजी
मुझको ही सुनो, मुझको ही चुनो
फिर देखो बनूँ मैं कैसे सर्वहारा

(राजिन्दर कृष्ण से क्षमायाचना सहित)
21 अगस्त 2014
सिएटल । 513-341-6798