बहार आई दहलीज़ तक मेरी
कल रात
और मैं सोता रहा, सोता रहा
हवा खटखटाती रही
दर रात भर
और मैं सोता रहा, सोता रहा
घटा बरसी
ख़िज़ा बरसी
पत्ते सारे बिछ गए
नोच-नोच के डाल से
पल-छिन सारे छीन गए
और मैं सोता रहा, सोता रहा
अब माथे हाथ दे के मैं सोचूँ
ये क्या हुआ, कैसे हुआ
ये क़ानून-क़ायदे, ये नियम
पतझड़ का होना भी ज़रूरी
काम-काज-मेहनत के साथ
मेरा सोना भी ज़रूरी
हर बार यही होता रहा
संविधान का हवाला देता रहा
वो बारह प्राणी तुम्हारे ही थे
तुम्हारे नगर के, तुम्हारे हितैषी
अब माथे हाथ दे के मैं सोचूँ
ये क्या हुआ, कैसे हुआ
बहार आई दहलीज़ तक मेरी
कल रात
और मैं सोता रहा, सोता रहा
25 नवम्बर 2014
सिएटल | 513-341-6798
1 comments:
कविता start बहुत intense note पर हुई है :
" बहार आई दहलीज़ तक मेरी
कल रात
और मैं सोता रहा, सोता रहा"
आगे की कविता भी intense है, especially यह lines :
"घटा बरसी
ख़िज़ा बरसी
पत्ते सारे बिछ गए
नोच-नोच के डाल से
पल-छिन सारे छीन गए
और मैं सोता रहा, सोता रहा"
यह lines बाकि की कविता से थोड़ी lighter हैं और आगे के part को जोड़ने में बहुत बढ़िया रही हैं :
"ये क़ानून-क़ायदे, ये नियम
पतझड़ का होना भी ज़रूरी
काम-काज-मेहनत के साथ
मेरा सोना भी ज़रूरी"
जब तक यह lines नहीं पढ़ीं थीं, समझ नहीं आ रहा था कि कविता का title "वो बारह प्राणी" क्यों है - "बहार" और "बारह" wordplay है या कोई और बात है:
"हर बार यही होता रहा
संविधान का हवाला देता रहा
वो बारह प्राणी तुम्हारे ही थे
तुम्हारे नगर के, तुम्हारे हितैषी"
कविता की पहली lines से ही कविता का conclude होना अच्छा लगा!
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