Tuesday, December 30, 2008

शुभकामनाओं की मियाद

साल दर साल

मन में उठता है सवाल

शुभकामनाओं की मियाद

क्यूं होती है बस एक साल?

 

चलो इसी बहाने

पूछते तो हो

एक दूसरे का हाल

साल दर साल

जब जब आता नया साल

 

सेन फ़्रांसिस्को

30 दिसम्बर 2004

Monday, December 29, 2008

वर्ष का आरम्भ

पहले प्रतीक्षा रहती थी वर्ष के आरम्भ की

क्यूंकि तब डायरी बदली जाती थी

पहले प्रतीक्षा रहती थी वर्षा के आरम्भ की

जो सावन की बदली लाती थी

 

अब कम्प्यूटर के ज़माने में डायरी एक बोझ है

और बेमौसम बरसात होती रोज है

 

बदली नहीं बदली

ज़िंदगी है बदली

 

बारिश की बूंदे जो कभी थी घुंघरु की छनछन

दफ़्तर जाते वक्त आज कोसी जाती हैं क्षण क्षण

पानी से भरे गड्ढे थे झिलमिलाते दर्पण

आज नज़र आते है बस उछालते कीचड़

 

जिन्होने सींचा था बचपन

आज वही लगते हैं अड़चन

 

रगड़ते वाईपर और फिसलते टायर

दोनो के बीच हुआ बचपन रिटायर

 

बदली नहीं बदली

ज़िंदगी है बदली

 

कभी राम तो कभी मनोहारी श्याम

कभी पुष्प तो कभी बर्फ़ीले पहलगाम

तरह तरह के कैलेंडर्स से सजती थी दीवारें

अब तो गायब हो गए हैं ग्रीटिंग कार्ड भी सारे

या तो कुछ ज्यादा ही तेज हैं वक्त के धारें

या फिर टेक्नोलॉजी ने इमोशन्स हैं मारे

दीवारों से फ़्रीज और फ़्रीज से स्क्रीन पर

सिमट कर रह गए संदेश हमारे

 

जिनसे मिलती थी अपनों की खुशबू

आज है बस रिसाइक्लिंग की वस्तु

 

बदली नहीं बदली

ज़िंदगी है बदली

 

पहले प्रतीक्षा रहती थी वर्ष के आरम्भ की ...

 

सिएटल,

31 दिसम्बर 2007

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डायरी = diary

वाईपर =wiper

टायर = tire

रिटायर = retire

कैलेंडर्स = calendars

ग्रीटिंग कार्ड = greeting card

टेक्नोलॉजी = technology

इमोशन्स = emotions

फ़्रीज = fridge

स्क्रीन्स =screens

रिसाइक्लिंग = recycling

Wednesday, December 24, 2008

क्रिसमस

छुट्टीयों का मौसम है

त्योहार की तैयारी है

रोशन हैं इमारतें

जैसे जन्नत पधारी है

 

कड़ाके की ठंड है

और बादल भी भारी है

बावजूद इसके लोगो में जोश है

और बच्चे मार रहे किलकारी हैं

यहाँ तक कि पतझड़ की पत्तियां भी

लग रही सबको प्यारी हैं

दे रहे हैं वो भी दान

जो धन के पुजारी हैं

 

खुश हैं खरीदार

और व्यस्त व्यापारी हैं

खुशहाल हैं दोनों

जबकि दोनों ही उधारी हैं

 

भूल गई यीशु का जन्म

ये दुनिया संसारी है

भाग रही उसके पीछे

जिसे हो हो हो की बीमारी है

 

लाल सूट और सफ़ेद दाढ़ी

क्या शान से संवारी है

मिलता है वो माँल में

पक्का बाज़ारी है

 

बच्चे हैं उसके दीवाने

जैसे जादू की पिटारी है

झूम रहे हैं जम्हूरें वैसे

जैसे झूमता मदारी है

 

राहुल उपाध्याय | दिसम्बर 2003 | सेन फ़्रांसिस्को


 

Monday, December 22, 2008

श्वेत हिम-कण

पिछले तीन दिनों से
श्वेत हिम-कण
मेरे घर पर पहरे दे रहे हैं
न किसी को आने देते हैं
न मुझे ही बाहर पाँव धरने दे रहे हैं

बड़े आए लिखने वाले
रोती-धोती अबला के मर्म पर
हम से बड़ा है मर्द कौन
देख इधर और कुछ शर्म कर
बार-बार हिम-कण
मुझे उलाहने दे रहे हैं

खिलती है धूप मगर
ये हैं कि मिटते ही नहीं
चलती है हवा मगर
ये हैं कि हटते ही नहीं
इनके आगे बड़े-बड़े
टेक घुटने दे रहे हैं

बड़ा भारी हो महल कोई
या घर हो कोई छोटा-मोटा
चमचाती हो मर्सडीज़
या धूल खाती हो टोयोटा
रुप-रंग के भेद सारे
सफ़ेद चादर में दबने दे रहे हैं

रंग रहित थे सारे पेड़
और निर्वस्त्र सी थी सारी डालियाँ
हीरे-मोती की उन पर
अब चमकती हैं झूमर-बालियाँ
फ़्री-फ़ोकट में दुनिया को ये
सुंदर-सुंदर गहने दे रहे हैं

ये आए हैं कहाँ से
और कहाँ इन्हें जाना है
भली-भाँति तरह से
भला किस ने जाना है
बन गया है कोई दार्शनिक
तो किसी को वैज्ञानिक बनने दे रहे हैं

सिएटल,
22 दिसम्बर 2008
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मर्म = http://mere--words.blogspot.com/2008/11/blog-post_23.html
मर्सडीज़ = Mercedes
टोयोटा = Toyota

Tuesday, December 16, 2008

जूता पड़ा रे बुश जी पे ईराक में

जूता पड़ा रे
हाँ
जूता पड़ा रे बुश जी पे ईराक में
जूता पड़ा, जूता पड़ा, जूता पड़ा
हाँ हाँ हाँ
जूता पड़ा रे ...

सदियों से ये घुसते आए
हर देस में बारी-बारी
बोले सबको ये बता के
हम है जनतंत्र के पुजारी
सब बोले जा जा जा बाबा
जा बख्श दे जान हमारी
लाख मनाया फिर भी
मुए ने कौम कई दे मारी
हाय! कौम कई दे मारी

फिर क्या हुआ?
फिर? जुता पड़ा है अभी तक तेल की फ़िराक में
जूता पड़ा रे बुश जी पे ईराक में
जूता पड़ा रे ...

खेलते-खाते जीते थे
प्रेम से अमरीकी बच्चे-बच्ची
ना चिंता थी ना फ़िकर थी
करते थे अपने मन की
इस जालिम को चैन न आया
कर लिया सेना में भरती
एक के बाद एक हज़ारों खप गए
लुट गई बस्ती बस्ती
हाय! लुट गई बस्ती बस्ती

फिर क्या हुआ?
फिर? मसीहा ढूंढा है इन लोगो ने बराक में
जूता पड़ा रे बुश जी पे ईराक में
जूता पड़ा रे ...

एक समय था जब होती थी
जग में डॉलर की पूजा
हर कोई इसका ग्राहक था
हर कोई करता था इससे सौदा
देस-विदेस से अमरीका आते थे
छात्र पाने उच्च शिक्षा
इसकी शक्ति, इसके कौशल का
मानता था हर कोई लोहा
हाँ मानता था हर कोई लोहा

फिर क्या हुआ?
फिर? मिला के रख दी है इज़्ज़त इसने खाक में
जूता पड़ा रे बुश जी पे ईराक में
जूता पड़ा रे ...

सिएटल,
16 दिसम्बर 2008
(राजा मेहदी अली खान से क्षमायाचना सहित)
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जूता = shoe
जुता = to be yoked, to be engaged in work
ईराक = Iraq
बराक = Barack Obama
डॉलर = Dollar

Friday, December 12, 2008

बेल-आउट

सांड है छुट्टी पर
और भालू का बाज़ार है
जब चिड़िया चुग गई खेत
कर रहे बेल-आउट का इंतज़ार है

धनाड्यों की दुनिया में
छाया अंधकार है
दिन में तारें दिखते हैं
हुआ बंटाधार है

अच्छे खासे सेठों का
ठप्प हुआ व्यापार है
स्टॉक्स के जुआरी लोग
कर रहे हाहाकार है

माना कि सारे जीव-जंतुओं में
मनुष्य सबसे होशियार है
आंधी आए, तूफ़ां आए
लड़ने को रहता तैयार है

सर्दी-गर्मी से निपटने को
किए हज़ारों अविष्कार हैं
पाँव मिले थे चलने को
पंख किए इख्तियार है

छोटी-बड़ी सारी समस्याओं से
पा लेता निस्तार है
सुनामी से भी बचने का
खोज रहा उपचार है

लेकिन फ़ितरत ही कुछ ऐसी है
कुछ ऐसा इसका व्यवहार है
कि अपने ही हाथों मिटने को
हो जाता लाचार है

त्रेता युग हो या द्वापर युग हो
या कोई सरकार हो
मानव ने ही मानव का
सदा किया संहार है

राम-राज्य से डाओ-जोन्स तक
सब बातों का यही सार है
आदमी संतुष्ट रहने से
सदा करता रहा इंकार है

सिएटल,
12 दिसम्बर 2008
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सांड = bull
भालू = bear
बेल-आउट = bail-out
स्टॉक्स = stocks
सुनामी =tsunami
डाओ-जोन्स = Dow-Jones Index

Monday, December 8, 2008

उस रात भी अमावस थी

उस रात भी अमावस थी
जब हमने कागज़ी रावण जलाए थे
और बच्चों को बड़े गर्व से बतलाया था
कि देखो ऐसे होती है बुराई पर अच्छाई की जीत

उस रात भी अमावस थी
जब ईंट-गारे की ईमारत जली थी
और हमने कागज़ी बाण चलाए थे
सम्पादक को पत्र लिख कर
कविता लिख कर
लेख लिख कर
परिजनों के साथ फोन पर
दिल की भड़ास निकाल कर

और अब?
क्रिसमस की छुट्टियाँ है
स्कूल भी बंद है
और बच्चों ने कई दिनों से
प्लान बना रखा है
मेक्सिको जाने का
टिकट पहले ही लिए जा चुके हैं
और यहीं तो साल में एक मौका होता है
सबके साथ घूम-फिर आने का

मारीच तो आते रहेंगे
कभी स्वर्ण हिरण बन कर
तो कभी नाव में बैठ कर

अंगरक्षक
जनता को
एक काल्पनिक रेखा के भरोसे
छोड़ कर
रक्षा करते रहेंगे
कभी महाराजाधिराज राम की
तो कभी महामहिम मुख्यमंत्री की

जनता के लुट जाने पर
वे आर्तनाद करेंगे
इधर-उधर
पशु-पक्षियों से
पेड़-पौधों से
पूछ-पूछ कर
समय बर्बाद करेंगे
किसी दूसरे देश से
मदद की मांग करेंगे

मिथकीय शत्रु के
मिट जाने पर भी
वे जनता को
परेशान करेंगे
कभी अग्निपरीक्षा लेंगे
तो कभी सत्ता के लोभ में
जंगल में रोता-बिलखता छोड़ देंगे

सिएटल,
8 दिसम्बर 2008

Saturday, December 6, 2008

लगता नहीं है दिल मेरा

लगता नहीं है दिल मेरा
आज के हिन्दुस्तान में
किसमें है हौसला
जो ठहरे जंग के मैदान में

कह दो नौजवानों से
कहीं और जा बसें
बचा ही क्या है भला
इस जलते श्मशान में

बमुश्किल बचा पाए थे
हम फ़कत चार उसूल
दो बेरोज़गारी में खर्च हो गए
दो दंगा-ए-हिंदू-मुसलमान में

कहने को है लोकतंत्र मगर
लोकतंत्र का स्वाँग है
जनता और नेता दोनो ही
बोलते नहीं एक जबान है

है कितना बदनसीब
ये भारत देश 'राहुल'
कि दुश्मन भी मिले
तो मिले अपनी ही संतान में

सिएटल,
6 दिसम्बर 2008
(ज़फ़र से क्षमायाचना सहित)

हिसाब-किताब

कुछ दिन पहले मेरा जन्मदिन था
तुमने शुभकामनाएँ भेजी थी
आज लगता है
वे बेमानी थी

आज तुम्हारा जन्मदिन है
और मैं तुम्हें 'विश' नहीं कर सकता
क्यूँकि हमारी दोस्ती में विष भर गया है

मैं फिर भी तुम्हें शुभकामनाएँ भेज रहा हूँ
क्योंकि मुझे हिसाब-किताब बराबर रखने की आदत है

देखो तुम भड़कना नहीं
इस आग को सम्हाल कर रखना
शाम को केक पर मोमबत्ती जलाने में
काम आएगी

और हाँ
तुमने मुझसे
नयी सड़क से
एक कविता की किताब लाने को कहा था
वो मैं ले आया हूँ
लगता है तुम्हें उसकी कोई खास ज़रुरत नहीं है
प्यार, वफ़ा, वादे, शिकवा-शिकायत, रुसवाई, विश्वासघात
यहीं सब कुछ तो है उसमें
और उन सबसे तुम अच्छी तरह वाकिफ़ हो

तुमने उस पर हुए खर्च के भुगतान की भी बात की थी
तो सुनो
किताब के 180
मेट्रो के 11
रिक्शा के 30
कुल मिला कर 221
और झगड़ा हो जाने पर भी
उसे फ़ाड़ कर न फ़ेंक देने की फ़ीस?
उसका अब तुम ही अंदाज़ा लगाओ

अगली बार
किसी से नाता तोड़ो
तो हिसाब-किताब पूरा कर के तोड़ना

सिएटल,
6 दिसम्बर 2008

Friday, December 5, 2008

मुझे एक बटन चाहिए

माउस की कुछ क्लिक्स हुई
और उसका नाम-ओ-निशान मिट गया
कांटेक्ट्स से निकाला
तो मैसेंजर से भी हट गया
मोबाईल के भी कुछ बटन दबाए
और उसका वजूद
हमेशा-हमेशा के लिए
मिट गया

जो चिट्ठियाँ हमने
एक दूसरे को लिखी थी
पलक झपकते ही
बिट्स और बाईट्स की
दुनिया में खो गई

कितना आसान है
कितनी सुविधा है
मशीन की दुनिया में
बस थोड़ा सा परिश्रम
और
पल में सब कुछ
हवा हो जाता है

कहते हैं कि
शरीर भी
शरीर नहीं
एक मशीन है

छोटा या बड़ा
चाहे कैसा भी निवाला लो
पेट में जाते ही
हो जाता महीन है

खट्टा या मीठा
चाहे जो भी खाओ
हलक से नीचे उतरते ही
हो जाता स्वादहीन है

जो भी ये पाता है
उसे आत्मसात कर लेता है
उनसे
खून
पसीना
गीजड़
बाल
नाखून
सब बना लेता है

कहते हैं कि
शरीर शरीर नहीं
एक मशीन है
और
आउटसोर्स के ज़माने में
इसका उत्पादन भी
सबसे ज्यादा
कर रहा चीन है

काश
इसमें भी
एक बटन होता
कि
जब जिसे चाहा
उससे मोहब्बत कर ली
जब जिसे चाहा
उससे नफ़रत कर ली
जब जिसे चाहा
उसे भुला दिया

सिएटल,
5 दिसम्बर 2008
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माउस = mouse
क्लिक्स = clicks
कांटेक्ट्स = contacts
मैसेंजर = instant messenger (chat)
मोबाईल = mobile, cell phone
बिट्स = bits
बाईट्स = bytes
आउटसोर्स = outsource

Monday, December 1, 2008

मंज़र हिंदुस्तान के

आओ यू-ट्यूब पर तुम्हें दिखाऊँ
विडियो हिंदुस्तान की
इस क्लिप पर क्लिक करो
ये क्लिप है जलते मकान की
वन डे यहाँ पर बम
वन डे वहाँ पचास खतम

ये रहा वो ताज होटल
जहाँ रईस मनाते थे रंगरेलियाँ
यहाँ चली थी बंदूके दनदन
यहाँ चली थी गोलियाँ
शिवसेना-निर्माण सेना के महारथी
सो रहे थे खा के नींद की गोलियाँ
'आमची मुम्बई, आमची मुम्बई' की
जो लगाते थे बोलियाँ
होश ठिकाने आ गए उनके
जो डींगे हाँकते थे बलिदान की
इस क्लिप पर क्लिक करो
ये क्लिप है भाषण देते हैवान की

ये रहा स्कूल जहाँ पर
बच्चे पाते हैं डिग्रियाँ
डिग्रियाँ तो मिलती हैं लेकिन
नहीं मिलती हैं नौकरियाँ
पढ़ा-लिखा देख के इनको
माँ-बाप ब्याह देते हैं बेटियाँ
कमा-धमा जब पाते नहीं हैं
तो निकालने लगते हैं रैलियाँ
कोई करे कलकत्ता बंद
तो कोई उखाड़े पटरियाँ राजस्थान की
इस क्लिप पर क्लिक करो
ये क्लिप है लुटती दुकान की

ये रहा संसद भवन
जहाँ लोग बैठे पहन के चूड़ियाँ
आए दिन सांसद बिकते हैं
जैसे बिकती हैं भेड़-बकरियाँ
रोज विभाजन होते हैं
रोज बनती नई-नई टोलियाँ
कोई करे चारा घोटाला
कोई दबाए सीमेंट की बोरियाँ
धीरे-धीरे ऐसी-की-तैसी
इन्होंने कर दी भारत महान की
इस क्लिप पर क्लिक करो
ये क्लिप है उजड़ते उद्यान की

जब भी आतंकवादी हाथ में आया
जात-देश उसकी पूछते हैं
'गर अपने ही देश का निकले
तो बगले झांकने लगते हैं
'गर निकले वो पड़ोसी देश का
तो अनाप-शनाप उन्हें फिर बकते हैं
और वो हो गुजरात-बंगाल-आंध्र का
तो उन्हें कुछ नहीं कहते हैं
कब तक हम निकालते रहेंगे
गलतियाँ श्री लंका-पाकिस्तान की
इस क्लिप पर क्लिक करो
ये क्लिप है ख़ुद के ही संतान की

ये रहा इस देश का कैलेंडर
जो बात-बात पर करता है छुट्टी
ये रहे आरक्षण के आँकड़े
जो जात-पाँत की उलझाते गुत्थी
ये रहे इस देश के युवा
जो क्रोध में भींच रहे अपनी मुट्ठी
ये रही विसा लेती प्रतिभाएँ
जो देश से कर रही हमेशा की कुट्टी
कौन भला बचेगा पीछे
जो सोचेगा भारत के उत्थान की
इस क्लिप पर क्लिक करो
ये क्लिप है खोते स्वाभिमान की

जितने मुँह हैं, उतनी बाते
हर कोई देता है प्रवचन
धरम-करम भी अलग-थलग है
भाषाएँ भी हैं पूरी दर्जन
फूट डालने की सबको छूट है
किसी पर नहीं है कोई बंधन
कहीं करे कोई अल्लाह-ओ-अकबर
तो कहीं पुकारे कोई अलख-निरंजन
चीख-चिल्लाहट के इस माहौल से
उम्मीद नहीं है शांतिपूर्वक समाधान की
इस क्लिप पर क्लिक करो
ये क्लिप है ज़हर में डूबे तीर्थस्थान की

सिएटल,
1 दिसम्बर 2008
(प्रदीप से क्षमायाचना सहित)
=============
यू-ट्यूब = YouTube
विडियो = video
क्लिप = clip
क्लिक = click
वन डे = one day
रैलियाँ = rallies
कैलेंडर = calendar
विसा = visa, a permit to live and work in another country