लगता नहीं है दिल मेरा
आज के हिन्दुस्तान में
किसमें है हौसला
जो ठहरे जंग के मैदान में
कह दो नौजवानों से
कहीं और जा बसें
बचा ही क्या है भला
इस जलते श्मशान में
बमुश्किल बचा पाए थे
हम फ़कत चार उसूल
दो बेरोज़गारी में खर्च हो गए
दो दंगा-ए-हिंदू-मुसलमान में
कहने को है लोकतंत्र मगर
लोकतंत्र का स्वाँग है
जनता और नेता दोनो ही
बोलते नहीं एक जबान है
है कितना बदनसीब
ये भारत देश 'राहुल'
कि दुश्मन भी मिले
तो मिले अपनी ही संतान में
सिएटल,
6 दिसम्बर 2008
(ज़फ़र से क्षमायाचना सहित)
आज के हिन्दुस्तान में
किसमें है हौसला
जो ठहरे जंग के मैदान में
कह दो नौजवानों से
कहीं और जा बसें
बचा ही क्या है भला
इस जलते श्मशान में
बमुश्किल बचा पाए थे
हम फ़कत चार उसूल
दो बेरोज़गारी में खर्च हो गए
दो दंगा-ए-हिंदू-मुसलमान में
कहने को है लोकतंत्र मगर
लोकतंत्र का स्वाँग है
जनता और नेता दोनो ही
बोलते नहीं एक जबान है
है कितना बदनसीब
ये भारत देश 'राहुल'
कि दुश्मन भी मिले
तो मिले अपनी ही संतान में
सिएटल,
6 दिसम्बर 2008
(ज़फ़र से क्षमायाचना सहित)
3 comments:
ज़बरदस्त...
आज के माहौल पे कटाक्ष करती आपकी कविता पसन्द आई....लिखते रहें
ek satik sach bayan kiya hai bahut khub
आपकी कविताए पढ़ कर मज़ा आ जाता है. आप के हुनर का जवाब नहीं.
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