Saturday, December 6, 2008

लगता नहीं है दिल मेरा

लगता नहीं है दिल मेरा
आज के हिन्दुस्तान में
किसमें है हौसला
जो ठहरे जंग के मैदान में

कह दो नौजवानों से
कहीं और जा बसें
बचा ही क्या है भला
इस जलते श्मशान में

बमुश्किल बचा पाए थे
हम फ़कत चार उसूल
दो बेरोज़गारी में खर्च हो गए
दो दंगा-ए-हिंदू-मुसलमान में

कहने को है लोकतंत्र मगर
लोकतंत्र का स्वाँग है
जनता और नेता दोनो ही
बोलते नहीं एक जबान है

है कितना बदनसीब
ये भारत देश 'राहुल'
कि दुश्मन भी मिले
तो मिले अपनी ही संतान में

सिएटल,
6 दिसम्बर 2008
(ज़फ़र से क्षमायाचना सहित)

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3 comments:

राजीव तनेजा said...

ज़बरदस्त...

आज के माहौल पे कटाक्ष करती आपकी कविता पसन्द आई....लिखते रहें

Anonymous said...

ek satik sach bayan kiya hai bahut khub

Anonymous said...

आपकी कविताए पढ़ कर मज़ा आ जाता है. आप के हुनर का जवाब नहीं.