पिछले तीन दिनों से
श्वेत हिम-कण
मेरे घर पर पहरे दे रहे हैं
न किसी को आने देते हैं
न मुझे ही बाहर पाँव धरने दे रहे हैं
बड़े आए लिखने वाले
रोती-धोती अबला के मर्म पर
हम से बड़ा है मर्द कौन
देख इधर और कुछ शर्म कर
बार-बार हिम-कण
मुझे उलाहने दे रहे हैं
खिलती है धूप मगर
ये हैं कि मिटते ही नहीं
चलती है हवा मगर
ये हैं कि हटते ही नहीं
इनके आगे बड़े-बड़े
टेक घुटने दे रहे हैं
बड़ा भारी हो महल कोई
या घर हो कोई छोटा-मोटा
चमचाती हो मर्सडीज़
या धूल खाती हो टोयोटा
रुप-रंग के भेद सारे
सफ़ेद चादर में दबने दे रहे हैं
रंग रहित थे सारे पेड़
और निर्वस्त्र सी थी सारी डालियाँ
हीरे-मोती की उन पर
अब चमकती हैं झूमर-बालियाँ
फ़्री-फ़ोकट में दुनिया को ये
सुंदर-सुंदर गहने दे रहे हैं
ये आए हैं कहाँ से
और कहाँ इन्हें जाना है
भली-भाँति तरह से
भला किस ने जाना है
बन गया है कोई दार्शनिक
तो किसी को वैज्ञानिक बनने दे रहे हैं
सिएटल,
22 दिसम्बर 2008
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मर्म = http://mere--words.blogspot.com/2008/11/blog-post_23.html
मर्सडीज़ = Mercedes
टोयोटा = Toyota
Monday, December 22, 2008
श्वेत हिम-कण
Posted by Rahul Upadhyaya at 11:22 AM
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Labels: nature
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4 comments:
is barfbaree kee badee charcha hai aaj to blog jagat men !
par josh kaayam hai ! Happy xmas and new year !
बर्फ गिरने का सुन्दर वर्णन
Very nice, Rahul! Barf ke effect ko ek "equalizer" ki tarah dekhna bahut interesting observation hai.
यहाँ तो हम तरसते हैँ कि काश कभी शिमला या मनाली जाना हो और बर्फबारी दिख जाए लेकिन शायद पुरानी बात सही है कि ...जिस तन लागी...वोही तन जाने...
बर्फ गिरने से बहुत मुश्किलें भी बढ जाती होंगी....
अच्छी कविता
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