कुछ दिन पहले मेरा जन्मदिन था
तुमने शुभकामनाएँ भेजी थी
आज लगता है
वे बेमानी थी
आज तुम्हारा जन्मदिन है
और मैं तुम्हें 'विश' नहीं कर सकता
क्यूँकि हमारी दोस्ती में विष भर गया है
मैं फिर भी तुम्हें शुभकामनाएँ भेज रहा हूँ
क्योंकि मुझे हिसाब-किताब बराबर रखने की आदत है
देखो तुम भड़कना नहीं
इस आग को सम्हाल कर रखना
शाम को केक पर मोमबत्ती जलाने में
काम आएगी
और हाँ
तुमने मुझसे
नयी सड़क से
एक कविता की किताब लाने को कहा था
वो मैं ले आया हूँ
लगता है तुम्हें उसकी कोई खास ज़रुरत नहीं है
प्यार, वफ़ा, वादे, शिकवा-शिकायत, रुसवाई, विश्वासघात
यहीं सब कुछ तो है उसमें
और उन सबसे तुम अच्छी तरह वाकिफ़ हो
तुमने उस पर हुए खर्च के भुगतान की भी बात की थी
तो सुनो
किताब के 180
मेट्रो के 11
रिक्शा के 30
कुल मिला कर 221
और झगड़ा हो जाने पर भी
उसे फ़ाड़ कर न फ़ेंक देने की फ़ीस?
उसका अब तुम ही अंदाज़ा लगाओ
अगली बार
किसी से नाता तोड़ो
तो हिसाब-किताब पूरा कर के तोड़ना
सिएटल,
6 दिसम्बर 2008
Saturday, December 6, 2008
हिसाब-किताब
Posted by Rahul Upadhyaya at 9:36 PM
आपका क्या कहना है??
5 पाठकों ने टिप्पणी देने के लिए यहां क्लिक किया है। आप भी टिप्पणी दें।
Labels: relationship
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
5 comments:
:-)) इन्सान की फ़ितरत है साहब, बदले कैसे???
कविता अच्छी है।
कविता अच्छी है...
अगली बार
किसी से नाता तोड़ो
तो हिसाब-किताब पूरा कर के तोड़ना
वाह जी वाह। बहुत अच्छा। Intense वाली रचनाएं जरुर पढूँगा बस थोड़ा वक्त चाहिए।
Kaafi intense kavita hai, Rahul! Bahut dino ke baad likhi intense kavita aapne. Very nice!
kahan kahan comment likhe. Sab acchaa lagaa. likhte rahiye
Post a Comment