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Saturday, November 14, 2020

मुझे चश्मा लगा

मुझे चश्मा लगा

उसे भूख लगी


मेरे दीप जलें

उसके पास 

चूल्हा तक नहीं 


घड़ियों की तो गिनती ही क्या

मेरे पास

चार गाड़ियाँ हैं

छ: आईफ़ोन हैं 

पाँच टीवी हैं 

दो ऐलेक्सा हैं

चार बेडरूम का 

एक दो मंज़िला 

घर है

ज़मीन है

जेवरात हैं 


विषमताओं का 

मैं 

शोक मनाऊँ कि जश्न?


जीवन

कोई भूगोल नहीं 

कि

यहाँ से चलें 

और वहाँ पहुँच गए


जीवन

एक बेहतर कल की 

उम्मीद की

कल-कल है


राहुल उपाध्याय । 14 नवम्बर 2020 । सिएटल 

--

Thursday, November 12, 2020

रोज़ कटता मेरा हाथ है

तेरे जार में रोज़ कटता मेरा हाथ है


तेरे प्यार में

निकालने जाता हूँ 

नानखटाई 

और

कट जाता मेरा हाथ है


——


मेरा अपना ख़ून 

मुझसे कुछ नहीं कहता


जब तक निकाल के न रख दूँ

किसी औज़ार से जुड़ी

पत्ती पर

और पढ़ूँ 

कोई नम्बर 


सौ से कम तो ख़ुश 

ज़्यादा तो दुखी


वो नहीं 

मैं 


वह भी

डॉक्टर के कहने पर


किस काम के

ये ज्ञान 

ये डॉक्टर 

ये औज़ार 

जो

हँसते-खेलते इंसान को

दुखी कर दें?


लम्बी उम्र जीने के लिए

दो पल के सुख से रोक दें


कल के लिए

आज बलि कर दें


——


तेरे जार में 

तेरे प्यार में 

रोज़ कटता मेरा हाथ है


राहुल उपाध्याय । 12 नवम्बर 2020 । सिएटल 



Wednesday, October 21, 2020

तीस पतझड़ बीते यहाँ मेरे


तीस पतझड़ बीते यहाँ मेरे

हर पतझड़ मिले रंग नए से

कितनी ही बार इन्हें मैं देखूँ

बार-बार लगे रंग चितेरे


यूँ तो सावन-भादो भी आए

घर-बार सब ख़ूब नहाए

बरसते पानी में मदहोश चला मैं

फ़ायर-प्लेस पे फिर जम के तपा मैं


शीत ऋतु भी अतिशय भाई

चारों तरफ़ सफ़ेदी सी छाई

पल-पल बच्चे किलकारी मारें

बर्फ़ फेंके, स्नोमेन सँवारें


ग्रीष्म ऋतु भी भली लगती है

झंडों और आतिश की होड़ लगती है

हर पिकनिक में तरबूज़ कटते

बार्बेक्यू पे भुट्टे सिकते


पर पतझड़ की बात अलग है

निस दिन निस दिन बढ़ती कसक है

एकाकीपन नहीं एकाकी लगता

ये मुझसे, मैं इससे कहता

जीवन की हर उहापोह को

बंधु-बांधव के राग-मोह को

कब किसने कितना रंग बदला

अबकी बार किसने संग छोड़ा


तीस बरस बीते पतझड़ में

रंग बदलते इस उपवन में 

भरे-रीते कुम्भ कई-कई सारे

कभी कुछ जीते, कभी कुछ हारे

जीवन का अब हिसाब यही है

लौ तो जलती है पर आग नहीं है


15 सितम्बर 2016

अमरीका में पदार्पण की 30 वीं वर्षगाँठ 

Sunday, April 5, 2020

काल का ग्रास

कभी किसी रविवार को
यदि इतवारी पहेली का हल न भेजूँ
तो समझ लेना मैं काल का ग्रास बन गया हूँ

ऐसा नहीं कि 
मैंने एहतियात नहीं बरती
माँ के साथ मन्दिर गया
होली मनाई
दूध-मिश्री-सब्ज़ी लेने बाज़ार गया
नवरात्रि के लिए नारियल-फूल लाया
लहलहाते जौ बहते पानी में छोड़े
कॉस्टको से गाड़ी में तेल भरा
और कोरोना मुझे डस गया

या कि
मैंने ताली-थाली नहीं बजाई
या निर्धारित समय पर दीप नहीं जलाए
और नौ मिनट की अवधि माप न सका

मैंने डायबीटीज़ पर विजय पा ली है
रोज़ कम से कम पाँच मील चलता हूँ
सिर्फ सब्ज़ी खाता हूँ
और सूर्यास्त के बाद कुछ भी नहीं 

फिर भी ऐसा नहीं कि
सारे रविवार मेरे हों
न बुद्ध के हुए, न राम के, न गाँधी के

एक दिन तो ऐसा आएगा ही
जब मैं हल नहीं भेज पाऊँगा 
तब समझ लेना मैं काल का ग्रास बन गया हूँ

लेकिन मेरी आत्मा की शांति प्रार्थना मत करना
वह तो स्थितप्रज्ञ है
वह क्यूँ अशांत होने लगी
न ही झूठी प्रशंसा करना
या कोई अच्छा काम ढूँढने की कोशिश करना

जो तुम आज, अभी मेरे बारे में सोच रहे हो
वही सच है
उसे नकारना मत
मुझे वही राहुल ज़िन्दा रखना है
कोई नक़ली राहुल नहीं 

मैं जैसा हूँ
मुझे वैसा ही रहने देना
उस पर फ़िल्टर नहीं लगाना
कुछ और ही नहीं बना देना

राहुल उपाध्याय । 6 अप्रैल 2020 । सिएटल

Thursday, October 10, 2019

कहाँ से चला, कहाँ मैं आज

कहाँ से चलाकहाँ मैं आज
कर्क रेखा से उड़ाहूँ पैतालिस के पार
सर्दी-गर्मी-बरसात के झंझट से दूर
है वातानुकूलित निवास

एक ग़रीब सा तबक़ा 
होंगी कोई सौ-दो-सौ झोपड़-पट्टी
जहाँ पाँच बसें सुबह आती थीं
शाम को चार
 था डॉक्टर
 कोई उपचार
स्कूल भी जाना हो
तो जाते थे रतलाम 
ऐसा था शिवगढ़
मेरा जन्मस्थान 

आमदनी के नाम पर भी
कहाँ था कुछ ख़ास
किसी की नहीं थी
कोई नियमित आय
या कोई स्थायी नौकरी
कोई पान बेचता था
कोई बीड़ी
कोई मिठाई
कोई दूध
कोई नाई
तो कोई बढ़ई 

वहाँ से आज मैं हूँ समामिश में
अमेरिका के एक ऐसे शहर में 
जहाँ के निवासियों की 
पूरे अमेरिका में हैं सबसे अधिक आय

हैं घर-गाड़ी-सारे ऐश--आराम
जिस सुविधा की कल्पना करो
वही सहज मुहैया आज

कहाँ से चला
कहाँ मैं आज

सच कहूँ तो मैं चला ही कहाँ
मुझे नियति ने चलाया और मैं चलता रहा
 मैंने कोई योजना बनाई
 कोई गुरू

राहें खुलती रहीं
मैं क़दम बढ़ाता रहा

जितना मैं धन्यवाद देता रहा
उतनी ही मेरी झोली भरती रहीं

जितना मैं ख़ुद को ख़ुशक़िस्मत समझता रहा
उससे अधिक मुझे ख़ुशी मिलती रही

जितना मैं देता रहा
उससे कई गुना पाता रहा

बचपन में सुना था
तुम एक पैसा दोगे
वो दस लाख देगा

विडम्बना तो यह है कि
सिवाय धन्यवाद मैंने
आज तक किसी को
एक पैसा भी नहीं दिया 

राहुल उपाध्याय  10 अक्टूबर 2019  सिएटल

Monday, November 19, 2018

जब मैं पैदा हुआ

जब मैं पैदा हुआ
चाँद कुछ यूँ दिख रहा था
और सूरज यूँ

अब दिक़्क़त ये कि
यह मंज़र फिर 
जाने कब होगा

तो क्या ताउम्र इंतज़ार करूँ 
जन्मदिन के जश्न का?

जहाँ चाह
वहाँ राह

अब हर साल दो जश्न होते हैं
एक दीप जलाकर
जब चाँद वैसा ही दिखता है
दूजा मोमबत्ती बुझाकर
जब सूरज वैसा ही दिखता है

देवोत्थानी एकादशी, संवत 2075
(मेरा जन्मदिन)
सैलाना

Saturday, September 15, 2018

मैं आया तबसे गया नहीं

मैं आया तबसे गया नहीं 
जैसा था वैसा रहा नहीं 
गया पचीसों बार मगर
उस राहुल में वो राहुल था नहीं 

मूँछ हटी, बाल झड़े
दाँत भी अब वो कहाँ रहे
इस नित बदलती काया में 
मूल कण कोई बचा नहीं 

रंग बदल गए, ढंग बदल गए 
शहर बदले, संग बदल गए
अपने-पराए का भेद मिटा
अपना-पराया कोई लगा नहीं 

समय भागता है घड़ी की सुइयों सा
मौसम बदलता है कैलेण्डर के पन्नों सा
इस आपाधापी के माहौल में 
ख़ुद ने ही ख़ुद से कुछ कहा नहीं 

15 सितम्बर 2018
(अमरीका में पदार्पण की 32 वीं वर्षगाँठ)
सिएटल


Sunday, May 11, 2014

माँ की प्रशंसा मैं कैसे करूँ?

माँ की प्रशंसा मैं कैसे करूँ?
अपनी खामियाँ मैं कैसे गिनूँ?
जो बीतीं हैं उस शख्स पर
उन यातनाओं को कैसे याद करूँ?

जो हुआ सो बहुत ही बुरा हुआ
किया मैंने भी कुछ अच्छा नहीं
जब कपड़े उतर चुके हैं खुद के
माँ की पूजा मैं कैसे करूँ?

19 साल तक जिसने पाला-पोसा
32 साल से उससे दूर हूँ मैं
झूठी बातें अब लिख के
किसे खुश करने की कोशिश करूँ?

क्या कहेंगी वो
और क्या कहूँगा मैं
कहने को जो था सब कहाँ जा चुका
कागद कारे अब क्यूँ नाहक करूँ?

11 मई 2014
सिएटल । 513-341-6798

Saturday, May 10, 2014

मामीसाब

मासी नहीं
माँ भी नहीं
माँ-सी हैं मगर मामी मेरी

छोटा सा था
भटकता सा था
पिता थे दूर विदेश में
इन्होंने ही थी उंगली थामी मेरी

न गुस्सा किया
न कभी दण्ड दिया
हमेशा मुस्करा के
भरी हामी मेरी

हमेशा 'आप' कहा
बड़ों सा आदर दिया
कभी नज़र न आई इन्हें
कोई खामी मेरी

मेरी पसंद-नापसंद अभी भी याद है
बीवी-बच्चों का भी करतीं लिहाज हैं
भगवान करे हर जन्म में
ये ही हो मामी आगामी मेरी

मैं जहाँ गया, ये मेरे साथ रहीं
अमिट इनकी मुझ पे छाप रही
जिस मामी का मुझ को प्यार मिला
उस मामी को लाखों सलामी मेरी

10 मई 2014
सिएटल । 513-341-6798