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Wednesday, February 26, 2020

नासै रोग हरे सब पीरा

नासै रोग हरे सब पीरा
जपत निरंतर हनुमत बीरा

यानि जितने रोगी मरे 
सब हनुमान चालीसा न जपने से मरे

लगता है हम दोहरे व्यक्तित्व वाले बन गए हैं

एक तरफ़ तो इतने जागरूक 
कि डॉक्टर बनने के सपने
देखते हैं और दिखाते हैं
और दूसरी ओर 
हनुमान चालीसा दोहराते हैं

आप कहेंगे
आपको क्या आपत्ति हैं
जो दो-चार लोग मिलकर ख़ुश हो लेते हैं
कोई गायन प्रतिभा पर वाह-वाह लूट लेता है
कोई हारमोनियम का उस्ताद निकल आता है
कोई नाच लेता है, झूम लेता है
सब खा-पी लेते हैं
रंग-बिरंगे परिधान पहनने का अवसर मिल जाता है
हमारी संस्कृति की छँटा सँवर जाती है
मिलने के बहाने मिल जाते हैं
दु:ख-सुख की बात कर लेते हैं

क्या सचमुच शब्द इतने बेमानी हो गए हैं?

क़सूर इनका नहीं 
क़सूर है इस व्यवस्था का 
जिसमें शब्दों पर कोई ध्यान नहीं देता

कविता या तो कोई पढ़ता नहीं है
और पढ़ता है तो
सन्दर्भ सहित व्याख्या से तो कोसों दूर भागता है
और गीत हुआ तो 
धुन से बाहर ही नहीं निकल पाएगा
और भाषा अवधी हो तो पूरा बेड़ा ही गर्क है

अंधन को आँख देत
कोढ़ियन को काया 

अंधा बनाया ही क्यों?
कोढ़ दिया ही क्यों?

हम कब उबरेंगे इन जय इनकी, जय उनकी से?

क्यों नहीं अपनाते:
हम को मन की शक्ति देना, मन विजय करें
दूसरों की जय से पहले, खुद को जय करें

भेद-भाव अपने दिलसे, साफ़ कर सकें 
दूसरोंसे भूल हो तो, माफ़ कर सकें 
झूठ से बचे रहें, सचका दम भरें 

मुश्किलें पड़ें तो हम पे, इतना कर्म कर 
साथ दें तो धर्म का, चलें तो धर्म पर 
खुदपे हौसला रहे, सचका दम भरें 

राहुल उपाध्याय । 26 फ़रवरी 2020 । सिएटल

Tuesday, December 31, 2019

गाड़ी चाहे टेस्ला हो

गाड़ी चाहे टेस्ला हो
या हण्डाई
नारियल तोड़ ही दिया जाता है

इस कार का 
एक्सीडेंट होगा या नहीं 
यह दु:ख देगी या सुख
यह इस बात पर निर्भर करता है
कि इसके टायर के नीचे
कितने नींबू कुचले गए

चार लाख का घर हो
या चालीस लाख का
सत्यनारायण की कथा
करवा ही ली जाती है
क्या पता कोई बला टल ही जाए

एक ही किताब को
हर मंगल को बाँचने में 
एक-डेढ़ घण्टा ख़राब 
हो भी जाए तो क्या?
क्या पता जीवन 
मंगलमय हो जाए?

संस्कृति और धर्म के बीच
जब अंतर कम होता नज़र आए
सब धुँधलाता जाए
तो एक बार नए सिरे से
सोच विचार कर लेना 
लाज़मी हो जाना चाहिए

राहुल उपाध्याय । 31 दिसम्बर 2019 । सिएटल

Thursday, November 14, 2019

मन्दिर तो बन जाएगा

मन्दिर तो बन जाएगा
पर उन जूतों का क्या होगा
जो इधर-उधर बिखरे रहते हैं
लाख हिदायत देने पर भी
सुव्यवस्थित नहीं रखे जाते हैं

मन्दिर तो बन जाएगा
पर उन मवेशियों का क्या होगा
जो इधर-उधर मुँह मारते रहते हैं
जिन्हें जो गुड़-रोटी खिलाना चाहते हैं
वे भी डंडे मारने से नहीं चूकते हैं

मन्दिर तो बन जाएगा
पर उन फूलों का क्या होगा
जो बाग़ से उजाड़ दिए जाते हैं
कुछ पल पंडित के हाथ लगते ही
नाली में बहने लगते हैं

मन्दिर तो बन जाएगा
पर उन मिठाइयों का क्या होगा
जिनसे मोटापा बढ़ता रहता है
डायबिटीज़ का घाटा होता है
 खाने पर भगवान का प्रकोप बढ़ता है

मन्दिर तो बन जाएगा
पर वैष्णोदेवी-तिरूपति को टक्कर नहीं दे पाएगा
कृष्ण जन्मभूमि अविवादित है
पर कौन वहाँ के मन्दिर की मान्यता के गुण गाता है

मन्दिर तो बन जाएगा
पर मन कहाँ ख़ुश हो पाएगा?

राहुल उपाध्याय  14 नवम्बर 2019  सिएटल

Friday, August 9, 2019

जितना मंजन किया

जितना मंजन किया
उतना वंदन किया

फिर भी दाँत झड़े
दु:  घटे
डॉक्टर ढूँढे 
पण्डित ढूँढे 
सबने घुटने
टेक दिए

कहने लगे
ढलती उम्र का इलाज नहीं
जीवन के चढ़ाव-उतार से निजात नहीं

फिर क्यूँ माँजूँ?
नाम भजूँ?
जिसका कोई स्थायी स्वभाव नहीं?

क्योंकि माँजे बिना मुस्कान नहीं
गुणगान बिना हर्ष--उल्लास नहीं

राहुल उपाध्याय  9 अगस्त 2019  सिएटल

Sunday, August 24, 2014

अभिषेक

नहाना - एक प्राईवेट क्रिया है
उसे पब्लिक बना दिया गया है
कर्मकाण्ड के पण्डितों ने
क़हर ढा दिया है

घर की बहू-बेटियाँ
जिनकी नज़रें
तौलिया लपेटे पुरूष को देखकर ही
शर्म से झुक जाती हैं
आज
भगवान के वस्त्र उतार कर
उन्हें
दूध-दही-घी-शहद से नहला रहीं हैं

====

अब तुम
तय कर ही लो
कि
ये मूर्ति है
या ईश्वर?

दो मिनट के लिए
इसके सामने
नतमस्तक हो जाते हो
और फिर
इसी के ईर्द-गिर्द
शराब पीते हो
जोक्स सुनाते हो
ठहाके लगाते हो

क्यूँ ज़रूरी था
इन्हें माला पहनाना
धूप देना
अगरबत्ती लगाना
फल-फूल-मेवा चढ़ाना?

24 अगस्त 2014
सिएटल । 513-341-6798

Wednesday, March 5, 2014

पौराणिक कथा

वही लोग
वही भोजन
वही हास-परिहास

वही कथा
सुनी-सुनाई
कलावती के
बाप की भूल
फिर से
सबको याद कराई

क्यों
करते हैं
कराते हैं
करवाते हैं
पौराणिक कथाओं का
उपहास उड़ाते हैं

ताकि
एक बहाना मिल सके?
संस्कृति से
समाज से
समुदाय से
जुड़ जाने का?
जिन्होंने खिलाया
उन्हें खिलाने का?
अपने घर बुलाने का?

5 मार्च 2014
सिएटल । 513-341-6798

Sunday, March 2, 2014

साक्षात्कार

जितने भी मंत्र होने चाहिए
सब के सब
लिखे जा चुके हैं
पढ़े जा चुके हैं

जितने भी देवी-देवता हैं
सब के सब
गढ़े जा चुके हैं
पूजे जा चुके हैं

लेकिन क्या वे प्रश्न
जो पूछे जाने चाहिए
पूछे जा सके हैं?

जिन प्रश्नों के उत्तर
अर्जुन को मिले थे
क्या हमें
समझ आ सके हैं?

एक रोबोट की तरह
हम किसी पुजारी
किसी आदेशक, निदेशक
के कहे अनुसार
किसी मेनुअल में लिखे नियमों के अनुसार
हाथ हिलाते हैं
दीप जलाते हैं
सर झुकाते हैं
घुटने टेकते हैं
लेकिन क्या कभी
उस
परमपिता परमेश्वर से
साक्षात्कार कर पाते हैं?

खुद तो कन्फ़्यूज़्ड हैं ही
नई पीढ़ी को भी
कन्फ़्यूज़्ड कर देते हैं

2 मार्च 2014
सिएटल । 513-341-6798

Thursday, June 20, 2013

केदारनाथ


तूफ़ान आया
आ कर बरस गया
पानी में डूबा शहर
पानी को तरस गया

उफ़ान नदी का
उतर गया
आँखों में
समंदर ठहर गया

इस में भी उसका हाथ होगा
कुछ लेन-देन का हिसाब होगा
समझाते हैं अपने आप को
ढूंढते हैं अपने पाप को

तूफ़ान हो या कोई क़हर हो
खतरे का कोई पहर हो
कोंसते हैं अपने आप को
सहते हैं हर अभिशाप को

कब मुक्ति हो इस पापी की
कब दया हो सर्वव्यापी की

Friday, March 19, 2010

पिता और देवता

कैसा है ये भारत प्यारे
कैसे इसके पुत्तर
जो पिता और देवता में
करे फ़र्क भयंकर
एक की मूर्ति बाहर रखे
एक की मूर्ति अंदर

कैसा है ये भारत प्यारे
कैसे भारतवासी
पिता-देवता रहे अलग
जबकि वे सहवासी
पिता-देवता दोनों देखो
दोनों स्वर्गवासी

कैसा है ये भारत प्यारे
कैसे इसके बंदे
जो गदाधारी-धनुषधारी
उनको करे सजदे
जो सूत काते, सत्य बोलें
उनसे रहे बच के

कैसा है ये भारत प्यारे
कैसी इसकी दुनिया
एक के सर पे दूध चढ़े
एक के सर पे चिड़िया
एक का लोग श्रृंगार करे
एक का बिगड़े हुलिया

कैसा है ये भारत प्यारे
कैसा ये कैरेक्टर
जीवन जिसने किया अर्पण
कहे वो दलिद्दर
देखा नहीं जिसे उसके
जपे रोज़ मंतर

सिएटल । 425-445-0827
19 मार्च 2010
==============
कैरेक्टर = character
दलिद्दर = बिलकुल गया-बीता और बहुत ही निम्न कोटि का। परम निकृष्ट

Tuesday, March 2, 2010

मंदिर

मैं जब भी कभी मंदिर जाता हूँ
भगवान को वैसे का वैसा ही तटस्थ पाता हूँ
कर्मयोगी जो ठहरे!

वही मुद्रा
वही भाव-भंगिमा
वही अधरो पे मुरली

और
साथ में वही राधा
जो कृष्ण को छोड़
मुझे देख रही हैं


जो कि
असम्भव
अकल्पित
और
असत्य है

इन्हीं सब बातों को ले कर
मैं हो जाता हूँ उनसे विमुख
न उन्हें देखकर मुझे मिलता है सुख
न उन्हें पर्दे के पीछे पा कर होता है दु:ख

इनका होना न होना
कोई मायने नहीं रखता है

अब मैं मंदिर के पार्किंग लॉट
में खड़ी कारें देख कर
खुश होता हूँ

मंदिर की वेब-साईट पर
कार्यक्रम की फ़ेहरिश्त देख कर
प्रोत्साहित होता हूँ

कि चलो आज बच्चों का भी मन लग जाएगा
कुछ नाचना-गाना होगा
कुछ गाना-बजाना होगा
कोई नाटक-शाटक होगा
शाम अच्छी बीत जाएगी

और
प्रीतिभोज में
अगर लड्डू, हलवा या खीर हुआ
तब तो चार चाँद ही लग जाएगे

बिखरे चप्पल
भटकते भक्त
और
बच्चों के कोलाहल में
मंदिर में एक जान आ जाती है
और मेरे चेहरे पर मुस्कान

वरना
पत्थर तो पत्थर ही ठहरा!

सिएटल । 425-445-0827
2 मार्च 2010

Wednesday, December 23, 2009

मैं ईश्वर के बंदों से डरता हूँ

हर 'हेलोवीन' पे मैं दर पे कद्दू रखता हूँ
लेकिन क्रिसमस पे नहीं घर रोशन करता हूँ
क्यों?
क्योंकि मेरे देवता तुम्हारे देवता से अलग है
लेकिन हमारे भूत-प्रेत में न कोई अंतर है

सब क्रिसमस के पहले खरीददारी करते हैं
मैं क्रिसमस के बाद खरीददारी करता हूँ
क्यों?
क्योंकि सब औरों के लिए उपहार लेते हैं
मैं अपने लिए 'बारगेन' ढूँढता हूँ

सब 'मेरी क्रिसमस' लिखते हैं
मैं 'हेप्पी होलिडेज़' लिखता हूँ
क्यों?
क्योंकि सब ईश्वर पे भरोसा करते हैं
मैं ईश्वर के बंदों से डरता हूँ

सिएटल । 425-445-0827
23 दिसम्बर 2009
========================
हेलोवीन = Halloween
बारगेन = Bargain
मेरी क्रिसमस = Merry Christmas
हेप्पी होलिडेज़ = Happy Holidays

Thursday, November 26, 2009

जन्म

जन्म के पीछे कामुक कृत्य है
यह एक सर्वविदित सत्य है

कभी झुठलाया गया
तो कभी नकारा गया
हज़ार बार हमसे ये सच छुपाया गया

कभी शिष्टता के नाते
तो कभी उम्र के लिहाज से
'अभी तो खेलने खाने की उम्र है
क्या करेंगे इसे जान के?'

सोच के मंद मुस्करा देते थे वो
रंगीन गुब्बारे से बहला देते थे वो

बढ़े हुए तो सत्य से पर्दे उठ गए
और बच्चों की तरह हम रुठ गए
जैसे एक सुहाना सपना टूट गया
और दुनिया से विश्वास उठ गया

ये मिट्टी है, मेरा घर नहीं
ये पत्थर है, कोई ईश्वर नहीं
ये देश है, मातृ-भूमि नहीं
ये ब्रह्मांड है, ब्रह्मा कहीं पर नहीं

एक बात समझ में आ गई
तो समझ बैठे खुद को ख़ुदा
घुस गए 'लैब' में
शांत करने अपनी क्षुदा

हर वस्तु की नाप तोल करे
न कर सके तो मखौल करे

वेदों को झुठलाते है हम
ईश्वर को नकारते है हम
तर्क से हर आस्था को मारते हैं हम

ईश्वर सामने आता नहीं
हमें कुछ समझाता नहीं

कभी शिष्टता के नाते
तो कभी उम्र के लिहाज से
'अभी तो खेलने खाने की उम्र है
क्या करेंगे इसे जान के?'

बादल गरज-बरस के छट जाते हैं
इंद्रधनुष के रंग बिखर जाते है

सिएटल,
26 नवम्बर 2007
(मेरा जन्म दिन)

Sunday, October 4, 2009

करवा चौथ

भोली बहू से कहती हैं सास
तुम से बंधी है बेटे की सांस
व्रत करो सुबह से शाम तक
पानी का भी न लो नाम तक

जो नहीं हैं इससे सहमत
कहती हैं और इसे सह मत

करवा चौथ का जो गुणगान करें
कुछ इसकी महिमा तो बखान करें
कुछ हमारे सवालात हैं
उनका तो समाधान करें

डाँक्टर कहें
डाँयटिशियन कहें
तरह तरह के
सलाहकार कहें
स्वस्थ जीवन के लिए
तंदरुस्त तन के लिए
पानी पियो, पानी पियो
रोज दस ग्लास पानी पियो

ये कैसा अत्याचार है?
पानी पीने से इंकार है!
किया जो अगर जल ग्रहण
लग जाएगा पति को ग्रहण?
पानी अगर जो पी लिया
पति को होगा पीलिया?
गलती से अगर पानी पिया
खतरे से घिर जाएंगा पिया?
गले के नीचे उतर गया जो जल
पति का कारोबार जाएंगा जल?

ये वक्त नया
ज़माना नया
वो ज़माना
गुज़र गया
जब हम-तुम अनजान थे
और चाँद-सूरज भगवान थे

ये व्यर्थ के चौंचले
हैं रुढ़ियों के घोंसले
एक दिन ढह जाएंगे
वक्त के साथ बह जाएंगे
सिंदूर-मंगलसूत्र के साथ
ये भी कहीं खो जाएंगे

आधी समस्या तब हल हुई
जब पर्दा प्रथा खत्म हुई
अब प्रथाओ से पर्दा उठाएंगे
मिलकर हम आवाज उठाएंगे

करवा चौथ का जो गुणगान करें
कुछ इसकी महिमा तो बखान करें
कुछ हमारे सवालात हैं
उनका तो समाधान करें

Tuesday, September 15, 2009

गुल खिलाना है बाकी



अभी लाश नहीं हूँ 
अभिलाषा है बाकी 
चाहा है तुमको 
तुम्हें पाना है बाकी 

दिल में मेरे तुम 
कब से बसे हो 
आँखों से आँखें 
मिलाना है बाकी 

आते ही रहते हो 
ख़्वाबों में हर दिन 
रातों में तुम्हारा  
आना है बाकी 

सबसे हसीं तुम 
जग में सनम हो 
हाथों से तुम्हें  
सजाना है बाकी 

 बागी नहीं 
बागबां है राहुल 
बागों में फिर से 
गुल खिलाना है बाकी 

राहुल उपाध्याय | 15 सितम्बर 2009 (अमरीका आने की 23 वीं वर्षगाँठ) | सिएटल 

Friday, August 14, 2009

5237 वीं जन्माष्टमी?

कितनी अजीब बात है
कि हमें उनका जन्मवर्ष तो ठीक से ज्ञात नहीं
लेकिन उनके जन्म की घड़ी है अच्छी तरह से याद
जबकि उस ज़माने में घड़ी थी ही नहीं

और अब
ग्रीनविच से घड़ी मिलाकर के
वृंदावन के लोग
रात के ठीक बारह बजे
मनाते हैं श्री कृष्ण का
न जाने कौन सा जन्मदिन

Friday, May 29, 2009

जय रघुबीर

बात-बात पर आप क्यूँ
मचा रहें उत्पात
पहले सम्हालिए देवता
फिर करें नेताओं की बात

जिन्हें आप हैं पूजते
वे भी करते थे भाई-भतीजावाद
कैकयी की एक ज़िद पर
कर दिया अयोध्या बर्बाद

कैकयी जिन्हें थी चाहतीं
वे ही बने युवराज
सोनिया जिन्हें हैं चाहतीं
क्यों न करें वे राज?

सोनिया की भारतीयता पर
उचित नहीं कोई प्रहार
कैकयी भी नहीं थीं रघुवंश की
वे थीं एक पराई नार

न कृष्ण ने पूजा राम को
न अर्जुन गए राम-मंदिर
फिर भी आप आज भी
क्यों भजते हैं जय रघुबीर?

त्रेतायुग हो, द्वापर युग हो
या फिर हो सतयुग
हर युग का अपना एक ढंग है
हर युग का है एक रूप

समय के साथ जो चलते रहें
पहनें उन्होंने हार
लकीर के फ़कीर जो बने रहें
उन्हें मिली है हार

सिएटल 425-445-0827
29 मई 2009

Saturday, April 18, 2009

धुआँ करे अहंकार

दूर से देते अर्घ थे
उतरें तो रखें पाँव
ये कैसा दस्तूर है?
करे शिकायत चाँद

दूर से लगते नूर थे
पास गए तो धूल
रूप जो बदला आपने
हम भी बदले हज़ूर

पास रहें या दूर रहें
रहें एक से भाव
ऐसे जीवन जो जिए
करें न पश्चाताप

हर दस्तूर दुरूस्त है
'गर गौर से देखें आप
जहाँ पे जलती आग है
धुआँ भी चलता साथ

पल पल उठते प्रश्न हैं
हर प्रश्न इक आग
उत्तर उनका ना दिखे
धुआँ करे अहंकार

ज्यों-ज्यों ढलती उम्र है
ठंडी पड़ती आग
धीरे-धीरे आप ही
छट जाए अंधकार

जोगी निपटे आग से
करके जाप और ध्यान
हम निपटते हैं तभी
हो जाए जब राख


सिएटल 425-445-0827
18 अप्रैल 2009
==========================
अर्घ = पुं. [सं.√अर्ह(पूजा)+घञ्,कुत्व] 1.कुशाग्र, जब तंडुल, दही दूध और सरसों मिला हुआ जल, जो देवताओं पर अर्पित किया जाता है। 2.किसी देवी-या देवता के सामने पूज्य भाव से जल गिराना या अंजुली में भरकर जल देना। 3.अतिथि को हाथ-पैर धोने के लिए दिया जाने वाला जल।

Tuesday, February 17, 2009

एक तरफ़ा प्यार


न थी
न हैं
न होंगी कभी
सांसों में मेरी
सांसे तेरी

फिर भी सनम
चाहूँगा तुझे
जब तक है
खुशबू
फूलों में तेरी

न थे
न हैं
न होंगे कभी
गेसू तेरे
कांधों पे मेरे

फिर भी सनम
चाहूँगा तुझे
जब तक है
अम्बर पर
बादल घनेरे

न था
न है
न होगा कभी
चेहरा तेरा
हाथों में मेरे

फिर भी सनम
चाहूँगा तुझे
जब तक है
दुआ
हाथों में मेरे

न थे
न हैं
न होंगे कभी
गालों पे तेरे
चुम्बन मेरे

फिर भी सनम
चाहूँगा तुझे
जब तक है
सपनों में
साए तेरे

न थी
न है
न होगी कभी
दुनिया तेरी
दुनिया मेरी

फिर भी सनम
चाहूँगा तुझे
जब तक है
दूरी
तुझसे मेरी

सिएटल,
17 फ़रवरी 2008

Friday, January 23, 2009

प्रश्न कई हैं

(http://www.youtube.com/watch?v=ALdNmdp5ibg)

प्रश्न कई हैं
उत्तर यही
तू ढूंढता जिसे
है वो तेरे
अंदर कहीं

जो दिखता है जैसा
वैसा होता नहीं
जो बदलता है रंग
वो अम्बर नहीं

मंदिर में जा-जा के
रोता है क्यूँ
दीवारों में रहता
वो बंधकर नहीं

बार बार
घंटी
बजाता है क्यूँ
ये पोस्ट-आफ़िस
या सरकारी दफ़्तर नहीं

सुनता है वो
तेरी भी सुनेगा
उसे
कह कर तो देख
जो पत्थर नहीं

ऐसा नहीं
कि वो देता नहीं
तू लपकेगा कैसे
जो तू तत्पर नहीं

लम्बा सफ़र है
अभी से सम्हल
सम्हलने की उम्र
साठ-सत्तर नहीं

बहता है जीवन
रूकता नहीं
जीवन है
नदिया
समंदर नहीं

सूखती है, भरती है
भरती है, सूखती है
एक सा रहता
सदा मंजर नहीं

चलती है धरती
चलते हैं तारें
धड़कन भी रुकती
दम भर नहीं

बढ़ता चला चल
मंज़िल मिलेगी
जीवन का गूढ़
मंतर यही


सिएटल 425-445-0827
23 जनवरी 2009

Wednesday, December 24, 2008

क्रिसमस

छुट्टीयों का मौसम है

त्योहार की तैयारी है

रोशन हैं इमारतें

जैसे जन्नत पधारी है

 

कड़ाके की ठंड है

और बादल भी भारी है

बावजूद इसके लोगो में जोश है

और बच्चे मार रहे किलकारी हैं

यहाँ तक कि पतझड़ की पत्तियां भी

लग रही सबको प्यारी हैं

दे रहे हैं वो भी दान

जो धन के पुजारी हैं

 

खुश हैं खरीदार

और व्यस्त व्यापारी हैं

खुशहाल हैं दोनों

जबकि दोनों ही उधारी हैं

 

भूल गई यीशु का जन्म

ये दुनिया संसारी है

भाग रही उसके पीछे

जिसे हो हो हो की बीमारी है

 

लाल सूट और सफ़ेद दाढ़ी

क्या शान से संवारी है

मिलता है वो माँल में

पक्का बाज़ारी है

 

बच्चे हैं उसके दीवाने

जैसे जादू की पिटारी है

झूम रहे हैं जम्हूरें वैसे

जैसे झूमता मदारी है

 

राहुल उपाध्याय | दिसम्बर 2003 | सेन फ़्रांसिस्को