Wednesday, March 5, 2014

पौराणिक कथा

वही लोग
वही भोजन
वही हास-परिहास

वही कथा
सुनी-सुनाई
कलावती के
बाप की भूल
फिर से
सबको याद कराई

क्यों
करते हैं
कराते हैं
करवाते हैं
पौराणिक कथाओं का
उपहास उड़ाते हैं

ताकि
एक बहाना मिल सके?
संस्कृति से
समाज से
समुदाय से
जुड़ जाने का?
जिन्होंने खिलाया
उन्हें खिलाने का?
अपने घर बुलाने का?

5 मार्च 2014
सिएटल । 513-341-6798

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1 comments:

Anonymous said...

कविता सही कहती है कि हर बार same पौराणिक कथाएँ सुनाई जाती हैं। हर week मंगलवार की कथा same होती है, हर करवाचौथ पर भी, हर पूजा में भी same कथा सुनाई जाती है। क्या हर बार उसी कथा को सुनने का हम पर अलग असर होता है, कोई नया ज्ञान मिलता है, कोई नया अर्थ सामने आता है? क्या बार-बार same कथा सुनने से हम कथा को mechanically सुनने लगते हैं?

कथा ज़रूरी है कि नहीं - सवाल अच्छा है। लेकिन संगत के साथ मिलकर सच्चे मन से पाठ करना अच्छा है। इससे संबकी peaceful vibrations join हो जाती हैं और अगर कोई struggle कर रहा हो तो उसे दूसरों का सहारा मिलता है। हमेशा अकेले, isolation में पाठ करना सही नहीं - मंदिर जाना, संगत से जुड़ना भी ज़रूरी है। मिल-बाँट कर खाना भी सही है - पर पाठ का focus fancy भोजन serve करना और खाना नहीं बन जाना चाहिए।

कविता में "करते", "कराते" और "करवाते" का use अच्छा है!