Monday, May 12, 2008

ॠषिवर

हम भी अजीब हैं
अल्ज़्हाईमर्स के मरीज हैं
वो है हम सब में
और हम ही को खबर नहीं है

ठीक उसी तरह जैसे
आँखे जो सब कुछ देखती हैं
नहीं देख पाती हैं खुद को

तलाश है एक आईने की
जो दिखा दे मुझे मेरी आत्मा
मेरा अंतर मेरा परमात्मा

आशा कम है चूंकि
आईने की नहीं
रिसिवर की है ज़रुरत
जैसे कि रेडियो वेव्स को
न तो देखा जा सकता हैं
न सुना जा सकता हैं
न सूंघा जा सकता हैं
न छुआ जा सकता हैं
न काटा जा सकता हैं
न मारा जा सकता हैं

क्या कृष्ण इसी की बात कर रहे थे?
अर्जुन को स्पंदन से ज्ञात कर रहे थे?

कैसे बनूं रिसिवर?
देखे हैं कई ॠषिवर
सिर पर है शिखा
जैसे कि एंटीना

पर वो तो बाद की बात है
बाहरी सजावट की बात है

मुझे अपनी पात्रता बढ़ानी होगी
ईर्ष्या दिल से मिटानी होगी
धूल मिट्टी कचरा हटाना होगा

कैसे बनूं रिसिवर?

सेन फ़्रांसिस्को
जुलाई 2002

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