हम भी अजीब हैं
अल्ज़्हाईमर्स के मरीज हैं
वो है हम सब में
और हम ही को खबर नहीं है
ठीक उसी तरह जैसे
आँखे जो सब कुछ देखती हैं
नहीं देख पाती हैं खुद को
तलाश है एक आईने की
जो दिखा दे मुझे मेरी आत्मा
मेरा अंतर मेरा परमात्मा
आशा कम है चूंकि
आईने की नहीं
रिसिवर की है ज़रुरत
जैसे कि रेडियो वेव्स को
न तो देखा जा सकता हैं
न सुना जा सकता हैं
न सूंघा जा सकता हैं
न छुआ जा सकता हैं
न काटा जा सकता हैं
न मारा जा सकता हैं
क्या कृष्ण इसी की बात कर रहे थे?
अर्जुन को स्पंदन से ज्ञात कर रहे थे?
कैसे बनूं रिसिवर?
देखे हैं कई ॠषिवर
सिर पर है शिखा
जैसे कि एंटीना
पर वो तो बाद की बात है
बाहरी सजावट की बात है
मुझे अपनी पात्रता बढ़ानी होगी
ईर्ष्या दिल से मिटानी होगी
धूल मिट्टी कचरा हटाना होगा
कैसे बनूं रिसिवर?
सेन फ़्रांसिस्को
जुलाई 2002
Monday, May 12, 2008
ॠषिवर
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
0 comments:
Post a Comment