यह जानते हुए भी कि न कोई है झूठा न कोई है सच्चा
फिर क्यों एक दूसरे को काटना हमें लगता है अच्छा?
कभी काला चश्मा तो कभी कोई अशोक
हर किसी को हम क्यों ठहराते है लुच्चा?
उछालते हैं कीचड़ मगर खुद रहते हैं गुप्त
समझदार हो कर क्यों खा जाते हैं गच्चा?
न कोई है किसी का बाप न किसी का बेटा
फिर क्यों किसी को हम समझते हैं बच्चा?
हर दिन कुछ न कुछ नया सीख जाते है हम
फिर क्यों किसी को हम कहते हैं कच्चा?
चाहे रावण हो पैदा या हो राम पैदा
क्यों नहीं करते कद्र उसकी जो होती है जच्चा?
आपस में ही क्यों नहीं मिटा लेते हैं झगड़ा
पब्लिक में जा कर क्यों धोते हैं कच्छा?
सिएटल,
16 मई 2008
इतना भी तू किसी को सराह ना,
कि भारी पड़ जाए एक दिन सराहना
Friday, May 16, 2008
काटना
Posted by Rahul Upadhyaya at 12:32 AM
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Labels: world of poetry
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