मैं बहता दरिया कभी सहरा नहीं होता
तुम्हारी बाहों मे जो मैं ठहरा नहीं होता
भरी दोपहर में झगड़ा और आधी रात को प्यार
इस तरह का रिश्ता कभी गहरा नहीं होता
मैं भी दे सकता था ईंट का जवाब पत्थर से मगर
काश तुम्हारे कंधे पर फूल सा चेहरा नहीं होता
सुनता दिमाग की तो कभी का छोड़ भी देता
काश मेरा दिल इस कदर बहरा नहीं होता
पहले सड़क पर फिर बाज़ार में आ जाते हैं वो
मंज़ूर जिन्हें अपने घर का पहरा नहीं होता
जो भी मिलता है वो बहुत अच्छा लगता है
तब तक जब तक सर पर सेहरा नहीं होता
सिएटल,
20 मई 2008
Tuesday, May 20, 2008
मैं बहता दरिया
Posted by Rahul Upadhyaya at 1:01 PM
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Labels: relationship, TG
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