हमने
हज़ारों दिन
हज़ारों रातें
गुज़ारी हैं
साथ साथ
तुम्हे हो न हो
मुझे हर लम्हा
अब तक है याद
लेकिन
वो लम्हा
जिसने किया
तुम्हे आज़ाद
और मुझे बर्बाद
छोड़ गया
कुछ ऐसी छाप
कि चेहरा देखते ही
समझ जाते हैं लोग
हाल तक पूछने से
कतराते हैं लोग
के बात निकलेगी तो
दूर तलक जाएगी
कितनी सयानी है दुनिया
ख़त का मजमून समझ लेती है
लिफ़ाफ़ा देख कर
अपना रास्ता बदल लेती है
मुझे आता देख कर
मेरी ज़िंदगी है खुली किताब
जिसे पढ़ने में
किसी की दिलचस्पी नहीं है
वो लम्हा
तुम्हारे शब्दों में
तुम्हारे लिए
लास्ट स्ट्रा था
मेरी किताब में तो
तिनका
डूबते का सहारा है
यह हमारे संस्कारों का अंतर है
कि मात्र समय का फेर?
सिएटल,
27 मई 2008
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लास्ट स्ट्रा = last straw
Tuesday, May 27, 2008
वो लम्हा
Posted by Rahul Upadhyaya at 4:10 PM
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Labels: relationship
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