सुबह आँख खुली
तो घड़ी नहीं थी
तुमने बिन पूछे
बिन बताए
उसकी जगह बदल दी थी
क्या हम अब इतने अलग हो गए हैं
कि हमारा कुछ भी साझा नहीं रहा?
दिन भर हम दोनों
अलग अलग
अपनी अपनी
घड़ी की सुईयों में
समय काटते हैं
वही तो एक थी
जो हम दोनों के
जुड़वा पलों की साक्षी थी
मैं जानता हूँ कि
कई दिनों से तुम्हें
उसकी अनवरत टिक-टिक
खल रही थी
वही तो एक धुन थी
वही तो एक लय थी
जो हम साथ सुना करते थे
वरना दिन भर कान में
दो तार लगा कर
संगीत भी तो हम
अलग अलग
ही सुनते हैं
अब हम
घड़ी की टिक-टिक में नही
सेल-फोन के सन्नाटे में
सोया करेंगें
अब हम
घड़ी में नहीं
सेल फोन में
समय देखा करेंगें
तुम्हारा अपना समय होगा
मेरा अपना
हम दोनों की दुनिया
एक हो ही नहीं सकती
तुम्हारे सेल फोन में
तुम्हारे अपने कांटेक्ट्स हैं
और मेरे सेल फोन में
मेरे अपने
हम दोनों का
एक साथ चलने का प्रश्न ही नहीं उठता है
तुम्हारी अपनी गाड़ी है
मेरी अपनी
तुम अपनी दिशा में जाती हो
मैं अपनी
कभी-कभार
जब तुम गलती से मेरी कार में
बैठ जाती हो
तो लगता है जैसे तुम किसी
अपरिचित देश में आ गई हो
कल्चर शॉक कहना
अंडरस्टेटमेंट होगा
ये क्या बेहूदा म्यूज़िक सुनते हो
बंद करो इसे
तुम्हारे कप होल्डर की साईज़ में भी गड़बड़ है
ये हीट क्यो लगा रखी है?
और तुम से कितनी बार कहा है कि
फ़्रूट्स कार में मत छोड़ा करो
आई कान्ट स्टैंड द स्मेल
हम अलग-थलग तो पहले थे ही
अब और भी अलग हो गई है दुनिया हमारी
सुबह आँख खुली
तो घड़ी नहीं थी
तुमने बिन पूछे
बिन बताए
उसकी जगह बदल दी थी
सिएटल,
27 मई 2008
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साझा = shared
साक्षी = witness
अनवरत = continuous
सेल-फोन = cell phone/mobile phone
कांटेक्ट्स = contacts
अपरिचित = unknown
कल्चर शॉक = culture shock
अंडरस्टेटमेंट = understatement
म्यूज़िक = music
कप होल्डर = cup holder
साईज़ = size
हीट = heat
फ़्रूट्स = fruits
आई कान्ट स्टैंड द स्मेल = I can't stand the smell.
Tuesday, May 27, 2008
घड़ी
Posted by Rahul Upadhyaya at 2:10 PM
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Labels: digital age, relationship, TG
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1 comments:
कभी हुआ था तय हम होंगे साथ रहेगी एक ही डगर
इसी तरह तय होता जायेगा मुश्किल का एक ये सफ़र
आज बँटे हैं पल भी पल में और घड़ी की सुईयाँ कहतीं
अपने अपने पांव के छाले, अपनी अपनी हुई रहगुजर
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