Friday, May 16, 2008

लकीरें

सही-गलत जैसी भी हैं लकीरें
मिटती तो हैं मगर धीरे-धीरे

मिलती है शांति हमें अपने ही भीतर
न गंगा के तट पर न थेम्स के तीरे

पारखी को परख पर यदि होता भरोसा
शीशें में सजा कर क्यों दिखाता वो हीरें

जो देखता हूँ मैं वही देखते हो तुम
बनाते हैं कुछ हम अलग ही तस्वीरें

हमारा आगाज़ भी एक और अंजाम भी एक
कोई ज्यादा अलग नहीं हैं हमारी तक़दीरें

जब तक हूँ कैदी तब तक हूँ राहुल
हो जाऊंगा गुम जैसे ही टूटेगी जंजीरें

सिएटल,
16 मई 2008

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1 comments:

Sant Kumar Bhatnagar said...

I happened to get one poem of your through afriend of mine. I opened your Blog and found that you have written umpteen numbers of poems. Keep up this work as it purifies the mind .keep it active and witty all the time. You may like to refer to my Blog 'Krungthep' as I also make some efforts to write poetry.
Sant K. Bhatnagar