Monday, May 19, 2008

तिलमिलाना और दिल मिलाना

काश तुम्हारी वफ़ा और जफ़ा में इतना फ़ासला नहीं होता
अब तो तुमसे खुल कर बात करने का भी हौसला नहीं होता

मैं थोड़ा सा तिलमिला गया तो तुमने मुझे बदनाम कर दिया
तुम किसी और से दिल मिला बैठी तो उसका चर्चा नहीं होता

माफ़ कर देता तुझे तीर खा कर भी मैं
बशर्ते तेरी त्रिया का तीर तिरछा नहीं होता

विश्वासघाती होते नहीं हैं सिर्फ़ राजनीति तक सीमित
बस प्यार के मारों का आए दिन धरना नहीं होता


मान भी जाता कि एक दिन पत्थर बनोगी तुम
'गर कंधे पे तेरे फूल सा चेहरा नहीं होता


ईश्वर नहीं है सिलेबस में तो चलो न सही
पर प्यार का भी कोई क्यों पर्चा नहीं होता

सिएटल,
19 मई 2008
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काश = alas
वफ़ा = faithfulness
जफ़ा = antonym of वफ़ा
फ़ासला = distance
हौसला = courage
तिलमिला = writhe in agitation
चर्चा = discussions
त्रिया = devious ways of women
विश्वासघाती = betrayer
धरना = picket
सिलेबस = syllabus
पर्चा = examination paper

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2 comments:

Neeraj Rohilla said...

आज पहली बार आपके चिट्ठे पर आया और आपके पुराने लेख भी पढे ।

आपकी रचनाओं में ख्याल अच्छे हैं लेकिन गजल के शिल्प के हिसाब से कई कमियाँ हैं । आशा है आप अन्यथा नहीं लेंगे ।

१) आपको गजल के मीटर (बहर) पर ध्यान देना होगा । पूरी गजल में सभी पंक्तियों की लम्बाई एक समान या लगभग एक जैसी ही हो ।

इसके लिये आप भर्ती के शब्द (गैर जरूरी) हटाकर और अपने ख्याल को दुरुस्त करके गजल को दुरुस्त कर सकते हैं । मुझे गजल की ज्यादा समझ नहीं है लेकिन आपकी रचना पर ही एक प्रयास किया है । आशा है आप अन्यथा नहीं लेंगे :-)




वफ़ा और जफ़ा में इतना फ़ासला नहीं होता,
तो खुल के बात करने का हौसला नहीं होता ।

जरा तिलमिलाया और मुझे बदनाम कर दिया,
तेरा और से दिल मिलाने का चर्चा नहीं होता ।

माफ़ कर देता तुझे तीर खा कर भी मैं
बशर्ते तेरी त्रिया का तीर तिरछा नहीं होता ।

विश्वासघाती होते नहीं हैं सिर्फ़ राजनीति तक,
बस प्यार के मारों का रोज धरना नहीं होता ।

मान भी जाता कि एक दिन पत्थर होगी तुम
गर कंधे पे तेरे फूल सा ये चेहरा नहीं होता ।

ईश्वर नहीं है सिलेबस में तो चलो न सही,
पर प्यार का भी कोई क्यों पर्चा नहीं होता ।

Rahul Upadhyaya said...

नीरज - आप आए। आपने समय निकाल कर मेरी रचनाएँ पढ़ी। बहुत अच्छा लगा। आप ऐसे ही आते रहिए और अपने विचार से मुझे अवगत कराए। आपकी कोई बात मुझे बुरी नहीं लगी। मैं आभारी हूँ कि आपने मुझसे सम्पर्क साधा।

मेरी रचनाएँ मात्र रचनाएँ हैं। मैं इन्हें कोई नाम नहीं देना चाहता। नाम देने से बंधन हो जाते है। सीमाएँ बन जाती हैं। मैं उनसे बचना चाहता हूँ। मैंने कहीं भी घोष्णा नहीं की है कि यह ग़ज़ल है और यह नज़्म है और यह कुँडली है।

मेरी कविताओं में विचार है, कल्पना नहीं। भाव है। बस। किसी शिल्प का जामा इन्हें न पहनाया है और न पहनाऊंगा। अगर समय हो तो इन रचनाओं को देखें:
http://mere--words.blogspot.com/search/label/world%20of%20poetry

सद्भाव सहित,
राहुल
425-445-0827