एन-आर-आई,
तुम बटोरते चलो,
डॉलर ही नहीं रुपये भी
यूरो ही नहीं, पाउंड भी
अमरीका में बंगलो ही नहीं,
इंडिया में फ़्लैट भी
तू जहाँ आया है
वो तेरा -
घर नहीं, गली नहीं,
गाँव नहीं, कूचा नहीं,
बस्ती नहीं, रस्ता नहीं,
अमरीका है,
और प्यारे,
अमरीका ये सर्कस है
और सर्कस में
बड़े को भी, छोटे को भी
खरे को भी, खोटे को भी,
दुबले को भी, मोटे को भी,
नीचे से ऊपर को,
ऊपर से नीचे को
आना-जाना पड़ता है
और रिंग मास्टर के कोड़े पर -
कोड़ा जो भूख है
कोड़ा जो डॉलर है,
कोड़ा जो क़िस्मत है
तरह-तरह नाच के दिखाना यहाँ पड़ता है
बार-बार रोना और गाना यहाँ पड़ता है
इंजीनियर से वेटर बन जाना पड़ता है
एन-आर-आई …
पाई पाई गिनता है क्यूँ
घड़ी घड़ी पाँव पड़ता है क्यूँ
खुंदक तू जब तक न खाएगा,
खुद्दारी तू जब तक न दिखाएगा
ज़िंदगी है चीज़ क्या
नहीं जान पायेगा
भीख मांगता हुआ आया है
भीख मांगता चला जाएगा
एन-आर-आई …
क्या है करिश्मा,
कैसा खिलवाड़ है
एन-आर-आई जानवर में ज़्यादा फ़र्क नहीं यार है
खाता है कोड़ा भी
रहता है भूखा भी
फिर भी वो मालिक पे करता नहीं वार है
और उल्टा
जिस देश से ये आता है
डिग्री जहाँ से पाता है,
जो परवरिश इस की करता है
उस के ही सीने में भोकता कटार है
एन-आर-आई …
सरकस
हाँ बाबू,
यह सरकस है
और यह सरकस है शो तीन घंटे का
पहला घंटा एच-वन है,
दूसरा ग्रीन-कार्ड है
तीसरा सिटिज़नशिप है
और उसके बाद - माँ नहीं, बाप नहीं
भाई नहीं, बॉस नहीं,
तू नहीं, मैं नहीं,
ये नहीं, वो नहीं,
कुछ भी नहीं
कुछ भी नहीं रहता है
रहता है जो कुछ वो -
ख़ाली-ख़ाली मेंशन है
काली-पीली गाड़ी है,
अकेलेपन का टेंशन है
बिना चिड़िया का बसेरा है,
न तेरा है, न मेरा है
राहुल उपाध्याय | 29 मई 2008 | सिएटल
तुम बटोरते चलो,
डॉलर ही नहीं रुपये भी
यूरो ही नहीं, पाउंड भी
अमरीका में बंगलो ही नहीं,
इंडिया में फ़्लैट भी
तू जहाँ आया है
वो तेरा -
घर नहीं, गली नहीं,
गाँव नहीं, कूचा नहीं,
बस्ती नहीं, रस्ता नहीं,
अमरीका है,
और प्यारे,
अमरीका ये सर्कस है
और सर्कस में
बड़े को भी, छोटे को भी
खरे को भी, खोटे को भी,
दुबले को भी, मोटे को भी,
नीचे से ऊपर को,
ऊपर से नीचे को
आना-जाना पड़ता है
और रिंग मास्टर के कोड़े पर -
कोड़ा जो भूख है
कोड़ा जो डॉलर है,
कोड़ा जो क़िस्मत है
तरह-तरह नाच के दिखाना यहाँ पड़ता है
बार-बार रोना और गाना यहाँ पड़ता है
इंजीनियर से वेटर बन जाना पड़ता है
एन-आर-आई …
पाई पाई गिनता है क्यूँ
घड़ी घड़ी पाँव पड़ता है क्यूँ
खुंदक तू जब तक न खाएगा,
खुद्दारी तू जब तक न दिखाएगा
ज़िंदगी है चीज़ क्या
नहीं जान पायेगा
भीख मांगता हुआ आया है
भीख मांगता चला जाएगा
एन-आर-आई …
क्या है करिश्मा,
कैसा खिलवाड़ है
एन-आर-आई जानवर में ज़्यादा फ़र्क नहीं यार है
खाता है कोड़ा भी
रहता है भूखा भी
फिर भी वो मालिक पे करता नहीं वार है
और उल्टा
जिस देश से ये आता है
डिग्री जहाँ से पाता है,
जो परवरिश इस की करता है
उस के ही सीने में भोकता कटार है
एन-आर-आई …
सरकस
हाँ बाबू,
यह सरकस है
और यह सरकस है शो तीन घंटे का
पहला घंटा एच-वन है,
दूसरा ग्रीन-कार्ड है
तीसरा सिटिज़नशिप है
और उसके बाद - माँ नहीं, बाप नहीं
भाई नहीं, बॉस नहीं,
तू नहीं, मैं नहीं,
ये नहीं, वो नहीं,
कुछ भी नहीं
कुछ भी नहीं रहता है
रहता है जो कुछ वो -
ख़ाली-ख़ाली मेंशन है
काली-पीली गाड़ी है,
अकेलेपन का टेंशन है
बिना चिड़िया का बसेरा है,
न तेरा है, न मेरा है
राहुल उपाध्याय | 29 मई 2008 | सिएटल
(नीरज से क्षमायाचना सहित)
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फ़्लैट = flat
वेटर = waiter
एच-वन = H-1B
मेंशन = mansion
टेंशन = tension
3 comments:
Very nice parody. Somethings always touch my heart in your poem...so true :).
Rahul Sir,
I generally see your mails on MS Indians.
Just in few words, become fan of yours.
कितनी गंभीर बातें कितनी सहजता से और कितने
हल्के-फुल्के ढंग से कह दी हैं आपने। साधुवाद।
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