न छपी है,
न छपवाऊंगा
पैसे दे कर मैं कभी किताब नहीं छपवाऊंगा
न है शिल्प का ज्ञान
न है छंद की पहचान
फिर भी रोज नई नई रचना
पेश करता जाउंगा
पन्ना एक एक रोज भेज कर
आपको झकझोड़ता जाऊंगा
लेकिन
पैसे दे कर मैं कभी किताब नहीं छपवाऊंगा
न छपी है …
छप गई किताब जो
बिकी नहीं किताब तो
पाठकों को
प्रकाशकों को
मैं कोसता ही जाऊँगा
इसीलिए
पैसे दे कर मैं कभी किताब नहीं छपवाऊंगा
न छपी है …
अच्छी हुई समीक्षा तो
समीक्षक को पकवान मैं खिलाऊंगा
बुरी हुई समीक्षा तो
समीक्षक को मजा मैं चखलाऊंगा
और समीक्षा ही नहीं हुई तो
समीक्षकों की सारी कौम को
चुने हुए नाम देता जाऊंगा
इसीलिए
पैसे दे कर मैं कभी किताब नहीं छपवाऊंगा
न छपी है …
न तुलसी ने बेची, न कबीर ने बेची
फिर भी ज़माना आज तक पढ़ता उन्हे हैं
भूख जिनकी मिटती नहीं है
कविता बेचना सिर्फ़ पड़ता उन्हे हैं
न बेटी की शादी
न बेटे का एडमिशन
न बीमारी का कोई बहाना है
कविता बेच कर इसे
आजीविका का साधन मुझे नहीं बनाना है
कविता में खुद्दारी झाड़ता हूँ इतनी
ज़िंदगी में भी खुद्दारी दिखाऊंगा
पैसे दे कर मैं कभी किताब नहीं छपवाऊंगा
न छपी है …
बाजुओं में जब तक दम है मेरे
कविता की दुहाई दे कर
हाथ नहीं फ़ैलाऊंगा
कविता लिखी है मर्जी से मैंने
मर्जी से ही लिखता जाऊंगा
न प्रकाशक
न आयोजक
किसी के भी दबाव में न आऊंगा
पैसे दे कर मैं कभी किताब नहीं छपवाऊंगा
न छपी है …
अगर आपके पास वक़्त है
तो सारी कविताएँ मुफ़्त हैं
पढ़िए, भेजिए, जो चाहे आप कीजिए
सारे बंधनों से आप मुक्त हैं
पन्ने पलट कर
बिस्तर में लेट कर
पढ़ना यदि आप चाहते हैं
तो आदेश मुझे दीजिए
ई-मेल मुझे भेजिए
सिर्फ़ आपके और आपके ही लिए
मैं एकमात्र प्रति छापता जाऊंगा
लेकिन
पैसे दे कर मैं कभी किताब नहीं छपवाऊंगा
न छपी है …
सिएटल,
9 मई 2008
Friday, May 9, 2008
किताब छपी?
Posted by Rahul Upadhyaya at 11:18 AM
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Labels: world of poetry
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1 comments:
contempory Dinkar!
Miss you at the ping pong table
Miss your Ramayan Paat
fantastic Rahul - You Rock
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