व्याकरण हो या फिर वो कर्ण प्रिय हो
तब जा कर ही कोई काव्य दिव्य हो
ऐसा तो कोई विधान नही है
कविता लिखने की कोई विधि नही है
कविता कविता है
कोई दाल-भात नही है
न पकाने के नियम है
न बरतना एहतियात है
कि अगर ज्यादा मिर्ची पड़ गई
तो किसी का हाजमा बिगड़ जाएगा
नमकीन में अगर चीनी डाल दी
तो अर्थ का अनर्थ हो जाएगा
अरे कवि, तुम डाल कर तो देखो
ज्यादा से ज्यादा
एक पन्ना व्यर्थ हो जाएगा
कवि का संसार बहुत बड़ा है
किसी एक दायरे में समाता नहीं है
सामने हो पकवान
फिर भी खाता नहीं है
बरसती है बरसात
साथ में होता छाता नहीं है
बुरा भला कहने से
कभी शरमाता नहीं है
और कोई कुछ कह दे
तो बिलख जाता नहीं है
बंध के रह जाएगा
कवि किसी काव्य शास्त्र में
ऐसी कभी आशा नही थी
जब पहला दोहा लिखा गया
तब दोहे की परिभाषा नहीं थी
पहले कवि लिखता है रचना
फिर बाद में होती है उसकी आलोचना
आलोचक-समीक्षक ढूंढते हैं pattern
मिल जाए कुछ तो उसे कहते हैं शैली
बनाते हैं नियम
लिख डालते हैं शास्त्र
ठीक वैसे ही जैसे
Stock market के crash के बाद
तमाम analyst लगाते हैं अटकलें
और रच डालते हैं एक पूरा शास्त्र
जिसके नियम में शेयर बाज़ार बंधता नहीं है
हर दिन एक नया रुप करता है धारण
ये तो था महज एक उदाहरण
पर क्यों नाहक ढूंढते हो कारण
जो लिखना है उसे लिखते चलो
लिखो, पढ़ो और आगे बढ़ो
वाह-वाह के चक्कर में कभी न पड़ो
ये ज़रुरी नहीं कि
पाठक-श्रोता सारे मस्त हो
या सर पर किसी का कोई वरद-हस्त हो
कविता कविता है
चाहे जैसी बन पड़ी है
चाहे किसी को लगे अच्छी
या कोई कहे कि ये सड़ी है
राहुल उपाध्याय | 18 अप्रैल 2008 | सिएटल
Friday, April 18, 2008
काव्य का व्याकरण
Posted by Rahul Upadhyaya at 11:38 AM
आपका क्या कहना है??
1 पाठक ने टिप्पणी देने के लिए यहां क्लिक किया है। आप भी टिप्पणी दें।
Labels: world of poetry
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
1 comments:
राहुल जी आपको अक्सर पढ़ती रहती हूँ बहुत अच्छा लिखते हैं ये रचना तो बहुत ही पसन्द आई कहे बिना रुका नहीं गया बहुत सच्चाई लिखी है इसमें बहुत-बहुत बधाई...
Post a Comment