आजकल हर मोहल्ले का संगठन बन बैठा 'ग्लोबल' है
बाँटते हैं प्रशस्ति पत्र जैसे बाँटें जा रहे 'नोबल' हैं
कंधे से कंधे मिला कर जो मंच पर खड़े उस दिन थे
अलग अलग संगठन बनाते नज़र आए वो कल हैं
अपने बेटी बेटे और कुनबे की परेड का ये स्थल है
देश या समाज की सेवा का दिखता नहीं मनोबल है
पद-प्रशंसा की लालसा से फलती-फूलती है चापलूसी
देखते हैं तमाशा सब मिलता नहीं कोई 'वोकल' है
राहुल उपाध्याय | 13 अप्रैल 2008 | वाशिंगटन डी सी
Sunday, April 13, 2008
संगठन
Posted by Rahul Upadhyaya at 10:13 PM
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Labels: intense, nri, world of poetry
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