Sunday, April 13, 2008

संगठन

आजकल हर मोहल्ले का संगठन बन बैठा 'ग्लोबल' है
बाँटते हैं प्रशस्ति पत्र जैसे बाँटें जा रहे 'नोबल' हैं

कंधे से कंधे मिला कर जो मंच पर खड़े उस दिन थे
अलग अलग संगठन बनाते नज़र आए वो कल हैं

अपने बेटी बेटे और कुनबे की परेड का ये स्थल है
देश या समाज की सेवा का दिखता नहीं मनोबल है

पद-प्रशंसा की लालसा से फलती-फूलती है चापलूसी
देखते हैं तमाशा सब मिलता नहीं कोई 'वोकल' है

राहुल उपाध्याय | 13 अप्रैल 2008 | वाशिंगटन डी सी

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