मेरे हाथों की लकीरों में अगर मुक़द्दर होता
मैं अपने ही हाथों के हुनर से बेखबर होता
आपत्तियों के पर्वत यदि न होते विशाल
विश्वविख्यात न आज सिकंदर होता
ऐश-ओ-आराम की ज़िंदगी होती तो अच्छी
लेकिन जीवन नीरस और बेअसर होता
सच्चे प्यार से न कभी होती मुलाकात
अगर झील सी आँखों में न समंदर होता
गर्व यदि होता हमें स्वयं पर
नालंदा आज न खंडहर होता
हाँ में हाँ यदि मिलाते सभी
मरघट सा यहाँ मंजर होता
परहेज़ जिसे कहता है डाक्टर
वही तो रोगी को प्रियकर होता
दुत्कारते न आप भरी सभा में मुझको
नाम मेरा न जाने कैसे अमर होता
छंद-मात्रा में यदि होता मैं सक्षम
मैं समक्ष आपके किताबों में छपकर होता
बहर-वजन का भी मैं रखता खयाल
जगजीत का मुझे मिला स्वर होता
दूसरों को बुरा भला जो कहते हैं लोग
उनके पास आईना नहीं अक्सर होता
थोड़ा सा सब्र जो कर लेते लोग
बात-बात पर न बवंडर होता
इंटरनेट की लड़ाईयाँ हैं बिट्स-बाईट्स तक सीमित
अन्यथा यहाँ महाभारत रोज जमकर होता
दिन-प्रतिदिन तो पकवान परोसें नहीं जाते
प्रत्येक दिन पर्व का नहीं अवसर होता
असम्भव था सिद्धार्थ का बुद्ध होना
राहुल संतान जो नहीं बनकर होता
सिएटल,
29 अप्रैल 2008
Tuesday, April 29, 2008
मुक़द्दर
Posted by Rahul Upadhyaya at 11:16 AM
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Labels: CrowdPleaser, TG, Why do I write?
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