पहले शोरगुल था
अब शोर गुल है
पहले साथ कुल था
अब अकेले बिलकुल है
हरी-हरी घास है
खिले-खिले फूल हैं
चहकती नहीं
मगर बुलबुल है
मैं भी मशगूल हूँ
वो भी मशगूल है
नदी तो है बहती
पर टूटा हुआ पुल है
संगी साथी सब
मुझे जाते भूल हैं
याद मुझे बस
आता बाबुल है
कभी अनुकूल है
कभी प्रतिकूल है
लिखता मगर
सदा राहुल है
सिएटल,
24 अप्रैल 2008
Thursday, April 24, 2008
शोर गुल है
Posted by Rahul Upadhyaya at 1:01 PM
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