तीन दिन की छुट्टियाँ आई थी
और जिसे देखो कहीं जा रहा था
सारा मोहल्ला खाली होता जा रहा था
वैसे भी यहाँ रहता कौन था
मरघट सा यहाँ रहता मौन था
लेकिन
आते-जाते
कम से कम
दिख तो जाते थे
भागते-दौड़ते ही सही
दुआ-सलाम तो कर जाते थे
अब एक अच्छा बहाना था
भई, लांग वीकेंड है
हम तो यहाँ होगे नहीं
वरना थोड़ी देर आपके साथ बैठते
इधर-उधर की थोड़ी गपशप करते
देखा-देखी हम भी चल पड़े
चलो इसी बहाने परिवार से जुड़ेगे
तीन दिन हम सब साथ रहेगे
दिल से दिल की बात कहेगे
सुबह सवेरे
जग जाते थे हम
किसी न किसी लाईन में
लग जाते थे हम
जहाँ भी गए लाईनें ही देखी
आदमी नहीं कहीं कोई देखा
भागते-दौड़ते सब कुछ देखा
बात करने का भी मिला न मौका
लौट के आए
तो कैमरे में कैद चंद तस्वीरें थी
और माथे पर खींच गई नई लकीरें थी
सिएटल,
21 मई 2008
Wednesday, May 21, 2008
लांग वीकेंड
Posted by Rahul Upadhyaya at 12:28 PM
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Labels: digital age, misc
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1 comments:
Very Good Rahulji....Kya Sahi baat kahi hay..!!
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