कल अमरीका में मध्यावधि चुनाव है. मुझे अपनी 10 साल पुरानी लिखी कविता याद आ गई.
डेमोक्रेट्स जीते या रिपब्लिकन्स जीते, हमें क्या
ये मुल्क नहीं मिल्कियत हमारी
हम इन्हें समझे, हम इन्हें जाने
ये नहीं अहमियत हमारी
तलाश-ए-दौलत आए थे हम
आजमाने किस्मत आए थे हम
आते हैं खयाल हर एक दिन
जाएंगे अपने घर एक दिन
डेमोक्रेट्स जीते या रिपब्लिकन्स जीते
बदलेगी नहीं नीयत हमारी
ना तो हैं हम डेमोक्रेट
और ना ही हैं हम रिपब्लिकन
बन भी गये अगर सिटीज़न
बन न पाएंगे अमेरिकन
डेमोक्रेट्स जीते या रिपब्लिकन्स जीते
छुपेगी नहीं असलियत हमारी
न डेमोक्रेट्स के प्लान
न रिपब्लिकन्स के उद्गार
कर सकते हैं
हमारा उद्धार
डेमोक्रेट्स जीते या रिपब्लिकन्स जीते
पूछेगा नहीं कोई खैरियत हमारी
हम जो भी हैं
अपने श्रम से हैं
हम जहाँ भी हैं
अपने दम से हैं
डेमोक्रेट्स जीते या रिपब्लिकन्स जीते
काम आयेगी बस काबिलियत हमारी
फूल तो है पर वो खुशबू नहीं
फल तो है पर वो स्वाद नहीं
हर तरह की आज़ादी है
फिर भी हम आबाद नहीं
डेमोक्रेट्स जीते या रिपब्लिकन्स जीते
यहाँ लगेगी नहीं तबियत हमारी
1 comments:
यह कविता जबसे आपने लिखी है, तबसे अच्छी लगती रही है और हँसाती रही है। इस बार पढ़कर realize हुआ कि समय बीतने के साथ, citizen बनने के साथ, यहाँ settled feel करने के साथ, अब कौन जीतेगा इसका असर होने लगा है। जैसे बच्चों के बारे में सोचकर लगता है कि candidates schools की safety के लिए क्या करना चाहते हैं, layoff हुए लोगों की कैसे help करेंगे - यह सब सवाल मन में आते हैं। जो भी जीते वो इन important issues पर कुछ करे - यही आशा है।
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