Saturday, November 15, 2014

बरस बीते, जीवन बीता

बरस बीते, जीवन बीता
मैंने सिर्फ़ लिखी कविता

रोज़मर्रा की भागदौड़ में 
आगे बढ़ने की होड़-होड़ में 
कथित उत्तरदायित्व के बोझ-बोझ में 
बाप ने था बेटे को भूला
बेटे ने था बाप को भूला

मैंने-तुमने-सबने फूँका
कर्तव्यों का ही चूल्हा फूँका
इनसे बड़ी न कोई पूजा
हाथों ने चरणों को छुआ
कर-कमलों ने दिया आशीष पूरा

जीवन का क्रम यूँही है चलता
फल से ही है बीज निकलता
बीज से ही फल फूलता-फलता
रंग बदलते मौसम हैं आते
पर पहली सी कहाँ रंगत ला पाते

जीवन का निस्तार यही है
विधि का विधान अकाट्य यही है
जो चल पड़ा वो प्राप्य नहीं है
गीता कहे पहने चोला वो दूजा
मुझे लगे वो धोखा व झूठा

15 नवम्बर 2014
(बाबूजी का पहला जन्मदिन, उनके जाने के बाद)
सिएटल | 513-341-6798

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1 comments:

Anonymous said...

कविता दिल को छूती है।

"बरस बीते, जीवन बीता
मैंने सिर्फ़ लिखी कविता" - आप जीवन में कई काम करते हो और उनमें से एक काम कविता लिखना भी है।

यह lines अच्छी लगीं:

"मैंने-तुमने-सबने फूँका
कर्तव्यों का ही चूल्हा फूँका"

"रंग बदलते मौसम हैं आते
पर पहली सी कहाँ रंगत ला पाते"

"अकाट्य" और "प्राप्य" मेरे लिए नए शब्द हैं।