Wednesday, December 3, 2014

पतंग सा चाँद

पतंग सा चाँद

जाड़ों की रात में 
पत्ते रहित पेढ़ की
सूखी टहनियों में 
फँसा था

फँसा क्या था
फँसाया गया था
मेरी रचनात्मक नज़रों द्वारा

करूँ भी तो क्या करूँ?
कैमरे में 
ऐसी ही तस्वीरें क़ैद की जाती हैं
कलर के ज़माने में 
श्वेत-श्याम प्रिंट की जाती हैं
बड़ी महंगी फ़्रेम में जड़ दी जाती हैं
और
किसी रईस के घर के आधे-अधूरे रोशन गलियारे की शोभा बन जाती हैं
हाथ में पेग लिए लोग उसका मूल्याँकन करने लग जाते हैं

और उधर
चाँद ढलता रहता है
टहनियाँ ठिठुरती रहती हैं
तथाकथित कला के क़द्रदानों के वाणिज्य से अपरिचित-अनभिज्ञ-अनजान

3 दिसम्बर 2014
सिएटल | 513-341-6798

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2 comments:

Anonymous said...

"पतंग सा चाँद" title बहुत sweet है! कविता पढ़ते हुए सर्दियों की रात का सुंदर सा दृश्य मन में बनता है - सर्दी की शांत सी रात, पत्ते-रहित पेड़, जगमगाते तारे, और सूखी टहनियों में फँसा हुआ चाँद - so beautiful!

कविता में शब्द everyday use से अलग हैं -रचनात्मक, श्वेत-श्याम, गलियारे, मूल्याँकन, तथाकथित, वाणिज्य - मगर context में समझ आ गए।

Anushka Yadav said...

बहुत खूब ... एक अजीब सी कैफियत बयां करती है ये ज़िंदगी की ...