मैं आया हूँ, लेके ताज हाथों में
जनतंत्र की पहचानी, हो पहचानी राहों से
मौन अरमानों को मैं आवाज़ दे रहा हूँ
हाँ मैं विचारों को नये अल्फ़ाज़ दे रहा हूँ
बसकर सबके ख़्वाबों में
जीत कर वोट को लाखों में
मैं आया हूँ, लेके ताज हाथों में
छोड़कर रिटायरमेंट मैं ये काम कर रहा हूँ
हाँ नाम बुढ़ापे का मैं बदनाम कर रहा हूँ
चलकर अपने दम पर मैं
जूझकर लाखों-लाखों से
मैं आया हूँ, लेके ताज हाथों में
स्पीच मेरी सुनकर, नौजवान जागते हैं
हाँ जोश में आके नए आसमान नापते हैं
रोशनी उनकी आँखों में
और भरकर ऊर्जा बाँहों में
मैं आया हूँ, लेके ताज हाथों में
(आनन्द बक्षी से क्षमायाचना सहित)
राहुल उपाध्याय । 8 नवम्बर 2024 । सिएटल