आदमी सेवा से बड़ा
और मेवा से मोटा बनता है
घर चाहे कितना ही बड़ा हो
ग़ैरों के लिए छोटा पड़ता है
ये नदी, ये नाले
ये पर्वत श्रंखलाएँ
इनका भी हिसाब
इंसान अब जोड़ा करता है
तुम कितने अच्छे हो
तुम्हें कैसे बताऊँ
जितना भी कहूँ
थोड़ा लगता है
न दिल देखा
न जां देखी
आँखों में ही तो
इन्सान सोता-जगता है
मोहब्बत की राहें
इतनी मुश्किल भी नहीं 'राहुल'
क्यूँ बात-बात पे यूँ
रोता रहता है
10 मई 2017
सिएटल | 425-445-0827
tinyurl.com/rahulpoems
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