तुम्हारा फोन आया
तो ऐसा लगा
जैसे
सिएटल में धूप खिली है
खाना बना रखा है
विविध भारती पर अच्छा गीत बज रहा है
भूख लगी है
और मैं एक-एक कौर
एक-एक निवाला
हज़ारों
रंगों से
ख़ुश्बूओं से
कृतज्ञताओं से
चैतन्यताओं से
सराबोर हो कर खा रहा हूँ
जब तुम नहीं थी
तब भी
रंग थे
ख़ुश्बूएँ थीं
कृतज्ञताएँ थीं
चैतन्यताएँ थीं
पर उनकी कोई वजह नहीं थी
वजह न हो
तो सब अजीब लगता है
वजह मिल जाए
तो ख़ुशी होती है
कि इसमें मेरा भी कुछ योगदान है
ख़ैरात किसे अच्छी लगती है?
राहुल उपाध्याय । 20 सितम्बर 2023 । सिएटल
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