Thursday, November 15, 2012

तुम जहाँ खिलो वहाँ खुशहाली


तुम कितना रोई
तुम कितना सोई
तुम किसके ख़्वाब में
कितना खोई

इन सबका जवाब है
एक अलौकिक आभा में
जो छलक रही है
तुम्हारे कण-कण से
चम्मच हिलाते चूड़ी की खन-खन से
सीड़ियों से उतरते कदमों से
दुपट्टे के झिलमिलाते रंगों से
मोती से चमकते दाँतों से
सखियों की खुसफुसाती बातों से

तुम कहाँ रही
तुम कहाँ गई
तुम किसकी बाहों में
समा गई

ये बात नहीं है पूछने की
ये बात है बस समझने की

तुम एक नदी हो मदमाती
तुम एक कली हो मुस्काती
तुम जहाँ बहो वहाँ हरियाली
तुम जहाँ खिलो वहाँ खुशहाली

तुम किसी एक के साथ नहीं बंधती
तुम किसी एक की हो नहीं सकती

तुम एक नदी हो मदमाती
तुम एक कली हो मुस्काती
तुम जहाँ बहो वहाँ हरियाली
तुम जहाँ खिलो वहाँ खुशहाली ...

15 नवम्बर 2012
सिएटल । 513-341-6798

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5 comments:

Anonymous said...

बहुत ही सुन्दर रचना है!

Unknown said...

बहुत खूब लिखा है आपने |

ஜ●▬▬ஜ۩۞۩ஜ▬▬●ஜ
ब्लॉग जगत में नया "दीप"
ஜ●▬▬ஜ۩۞۩ஜ▬▬●ஜ

Rajendra Swarnkar : राजेन्द्र स्वर्णकार said...



तुम एक नदी हो मदमाती
तुम एक कली हो मुस्काती
तुम जहाँ बहो वहाँ हरियाली
तुम जहाँ खिलो वहाँ खुशहाली


वाह वाऽऽह!
राहुल उपाध्याय जी

अच्छा लिखते हैं …

बहुत बहुत बधाई और शुभकामनाएं !

Anonymous said...

Good

Anonymous said...

आपकी. कविता पसंद आई