टूट न जाएँ सपने
मैं डरता हूँ
जग के भी देखो कहाँ
मैं जगता हूँ
रूठ न जाएँ अपने
मैं डरता हूँ
खोल के भी आँखें अपनी
बंद रखता हूँ
भूल न जाऊँ उसे
मैं डरता हूँ
ग़म और ख़ुशी से मैं
दूर रहता हूँ
छूट न जाए बचपन
मैं डरता हूँ
बरखा की बूँदें
लब पे चखता हूँ
डूब न जाए सूरज
मैं डरता हूँ
मेघों को नैनों में
रोके रखता हूँ
बीत न जाए जीवन
मैं डरता हूँ
दीया इक नया जला
दिया करता हूँ
18 फ़रवरी 2017
सिएटल | 425-445-0827
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