चलो इक बार फिर से क्रिकेट देख लें हम दोनों
न मैं तुमसे कोई उम्मीद रखूँ फ़ैसले आदि की
न तुम मेरी तरफ़ रखो माँग भागीदारी की
मेरे अपने जुनून हैं, मेरे सपने हैं
मेरे उपर लटकी है तलवार ज़िम्मेदारी की
तुम्हें भी कोई उलझन रोकती है पेशकदमी से
मुझे भी लोग कहते हैं कि ये बेकार के चक्कर हैं
कब किस आंदोलन ने क्या बदल दिया देखो
शहीद हए कई लेकिन बदले न मंज़र हैं
तार्रुफ़ रोग हो जाये तो उसको भूलना बेहतर
ताल्लुक बोझ बन जाये तो उसको तोड़ना अच्छा
वो हंगामा जिसे अंजाम तक लाना ना हो मुमकिन
उसे एक क्रिकेट मैच पर छोड़ना अच्छा
(साहिर से क्षमायाचना सहित)
20 अप्रैल 2018
सिएटल
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