एक फूल की चाह को
कैसे मैं नकार दूँ
पल रहे जो ख़ार से
उनको क्यूँ बिसार दूँ
जो भी राग-द्वेष हैं
हो रहे जो क्लेश है
ये सृष्टि के बीज हैं
बनते इनसे देश है
न युद्ध हो, न कमान हो
गीता का फिर क्यों ज्ञान हो
न पाप हो, संहार हो
पैदा क्यों अवतार हो
बढ़ रहे मसअलों से
बढ़ रहा विकास है
एक जैसी सोच से
कब हुआ विकास है
ये काँपतीं ये टोलियाँ
ये चीखती ये गोलियाँ
सब उचित कहलाएँगी
सब विस्मृत हो जाएँगी
जब ध्वज नया कोई लहराएगा
जब राष्ट्रगीत एक बन जाएगा
राहुल उपाध्याय । 11 अक्टूबर 2023 । सिंगापुर
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