हर शहर में एक ऐसा शहर है
जो सफ़र में बन के रहा हमसफ़र है
मिलता है मुझसे
पहचानता है मुझको
मेरी ही आवाज़ में
बुलाता है मुझको
सुनता है मेरी
सुनाता है अपनी
खिला के मुझे
भूख मिटाता है अपनी
जानता है वो
मैं यहाँ रूकूँगा नहीं
गले से लगाके
उसे रखूँगा नहीं
और यही एक बात
उसे खींच लाती है मुझ तक
वरना हज़ारों हैं लोकल
जो कर सकते हैं प्यार
मुझसे भी ज़्यादा
पर परदेसी की नज़र
है ऐसी दीगर
कि पीपल हो
पनघट हो
कुत्ता हो कोई
नदी हो
दरिया हो
मंदिर हो कोई
सुबह हो
शाम हो
पहर हो कोई
खेत हो
खलिहान हो
बंजर हो कोई
हूर हो
परी हो
साधारण हो कोई
हर एक पे कैमरा
निकलता है ऐसे
कि यही है ताजमहल
यही अजन्ता
जितना भी देखूँ
पेट नहीं भरता
कल जाना है मुझको
कैसे समेटूँ हुस्न ये सारा
फिर आना है एक दिन
लेकिन आऊँगा नहीं
न जाने कितने पनघट अभी
और निहारने हैं बाक़ी
राहुल उपाध्याय । 30 अक्टूबर 2023 । क्राबी (थाइलैंड)
(क्राबी छोड़ने की पूर्व संध्या पर)
https://mere--words.blogspot.com/2023/10/blog-post_30.html?m=1
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