बाहर है बीस
अंदर है सत्तर
दोनों के बीच है
एक शीशे का अंतर
कितनी है पास
कितनी है दूर
मेरे बगीचे की
उजली वो धूप
थर्मामीटर न होता
तो रखता बाहर कदम
ठंड से न यूँ
मैं जाता सहम
शीशों में क़ैद
गर्म हवा के बीच
कितना बदल जाता है
आदमी का व्यक्तित्व
और ऊपर से हो 'गर
एक बड़ा सा घर
दुनिया जिसे कहती हो
शुभ्र महल
फिर तो चमड़ी का
चाहे जैसा हो रंग
बदल ही जाता है
आदमी के सोचने का ढंग
खिड़की के बाहर
और खिड़की के अंदर
दोनों जहाँ में
बढ़ता जाता है अंतर
सिएटल । 425-445-0827
6 मार्च 2009
Friday, March 6, 2009
शीत लहर
Posted by Rahul Upadhyaya at 3:03 PM
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1 comments:
अच्छी तस्वीर दिखायी सिएटल की ... अच्छी रचना।
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