Monday, February 17, 2014

कहने को है 'चिर-आग'

कहने को है 'चिर-आग'
और एक-न-एक दिन बुझ ही जाता है
लाख पढ़ लो किताबें
अकल का ताला एक-न-एक दिन खुल ही जाता है


जितनी है उम्र
सिर्फ़ उतना ही है जीना
बैठते ही सांस
पुनर्जन्म में विश्वास उठ ही जाता है


फूलों की महक ही
जिनके लिए नहीं होती है काफ़ी
उनके हाथों में
काँटा चुभ ही जाता है


दिल में हो तमन्ना
और आँखों में ज्योत
तो मंज़िल की तरफ़ रास्ता
खुद-ब-खुद मुड़ ही जाता है


अल्फ़ाज़ हो आसां
और सूफ़ियाना हो भाव
ऐसी शायरी के आगे
सर खुद-ब-खुद झुक ही जाता है


17 फ़रवरी 2014
सिएटल । 513-341-6798


 

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2 comments:

Anonymous said...

कविता में सारी बातें अच्छी हैं। लोग कहते हैं किताबें पढ़ने से knowledge मिलेगी - आपकी बात अच्छी लगी कि कितनी भी किताबें पढ़ लो कुछ नहीं होगा लेकिन एक दिन अकल अपने आप आ जायेगी। आपने सही कहा कि "जितनी है उम्र सिर्फ़ उतना ही है जीना" - और सब तो मानने या न मानने कि बात है।

यह lines बहुत अच्छी लिखी हैं - इनमें बात तो अच्छी है ही, लिखने का style बहुत crisp है:

"फूलों की महक ही
जिनके लिए नहीं होती है काफ़ी
उनके हाथों में
काँटा चुभ ही जाता है'

यह lines inspirational हैं:

"दिल में हो तमन्ना
और आँखों में ज्योत
तो मंज़िल की तरफ़ रास्ता
खुद-ब-खुद मुड़ ही जाता है"

चिराग" और "चिर-आग" का wordplay बढ़िया है!

random thougts said...

Aap ke lekhan me roots se door hone ka dard jhalakta hai. Naye parvesh me aur badalti duniya me pasra sunapan jhalakta hai. Par yeh universal samasya hai aur shayad is ka hal itna asaan nahi hai. Acchhe lekhan ke liye bahut bahut badhayian. Aap ne kavita ke madhyam se manav man ka accha chitran kiya hai. Padh kar acchha lagta hai. Man ke kuch tantoo ko jhakor deti hai aap ki yeh chotti chotti kavitayen