बर्फ़ भी है, बहार भी
शीत भी है, श्रृंगार भी
सृष्टि के आधार में
फूल भी है, खार भी
जैसा बोओ, वैसा काटो
इसने किया विनाश बहुत
इसे छोड़, उसे बोयें
मानव ने किए प्रयास बहुत
सृष्टि के हैं नियम गहरे
इनसे न कभी कोई उबरे
फूल उगाए, शूल भी उगे
घर बनाए, धूल भी उड़े
जब-जब कोई शिशु जन्मे
शिशु हँसे, शिशु रोए
खाए-पीए, डायपर भरे
अभी जगे, अभी सोए
यह सृष्टि है कोई सिनेमा नहीं
कि हीरो अलग, विलेन अलग
दीपक जले, दीपक बुझे
हवा के ही हाथों सनम
6 मार्च 2015
सिएटल | 513-341-6798
6 comments:
कविता बहुत सुन्दर lines से start हुई है:
"बर्फ़ भी है, बहार भी
शीत भी है, श्रृंगार भी
सृष्टि के आधार में
फूल भी है, खार भी"
सृष्टि में duality की co-existence natural है। जैसे आपने कहा - मौसम warm होने लगा था तो बहार आई थी, फूल खिले थे; फिर अचानक सर्दी का दिन आया तो बर्फ आ गयी। अब बर्फ और बहार एक साथ दिखाई दे रहे हैं। इसी तरह जब "फूल उगाए, शूल भी उगे"। हवा से दीपक जलता भी है और बुझता भी है। हम भी सृष्टि का हिस्सा हैं इसलिए duality हमारे अंदर भी naturally exist करती है। हम उसे बाहर तो देख पाते हैं पर अपने अंदर नहीं देख पाते - यही हमारा challenge है।
आपके कार्टूनों को यहाँ फिर से प्रकाशित किया है http://www.rachanakar.org/2015/04/raahul-upaadhyaay-phyoojan-kaartoon.html
धन्यवाद। आपके प्रोत्साहन से मनोबल बढ़ता है। स्नेह बनाए रखे।
Kya khoob likha hai aapne
सुंदर प्रस्तुति.
मेरे ब्लॉग पर भी आपका स्वागत है.
http://iwillrocknow.blogspot.in/
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अगर कुछ भी लिख देना- कविता या गीत है तो कविता अच्छी बनी-----अगर गद्य में लिखा जाता तो और अच्छी बनती---
कोई समझ लेगा तो समझा देगा -इसी उमीद के साथ
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