Wednesday, February 25, 2015

झूठ है कि सच हमें पसंद है


आईना भी सच बोलता
तो कौन उसे पास रखता
सूरज भी सदा चमकता
तो कौन उसे पूजता

सूरज हो, चाँद हो
राम हो, श्याम हो
खोट का ही मोल है
परिवर्तन से ही मोह है

जो
न गिरता है, न सम्हलता है
न डूबता है, न उगता है
न घटता है, न बढ़ता है
उसे कौन पूछता है
उसे कौन पूजता है

झूठ है कि सच हमें पसंद है

जो सच है
वो शाश्वत है
तटस्थ है
पूछो, तो एक ही जवाब
पूजो, तो कोई न लाभ

इसीलिए
पाषाण पूजे जाते हैं दो-चार मिनट
और 
जी-हज़ूरी की जाती है
साधु, गुरू, बॉस, बीवी, नेता आदि की
दिन-रात

खोट का ही मोल है
परिवर्तन से ही मोह है

25 फ़रवरी 2015
सिएटल | 513-341-6798


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4 comments:

Anonymous said...

"झूठ है कि सच हमें पसंद है" - कविता के title में "झूठ" और "सच" के use से title interesting बना है। शाश्वत और तटस्थ सच हमारा anchor है, भरोसा है - बाकि सब बदलने वाली बातें हैं। Impermanent बातों से ख़ुशी भी temporary ही मिलती है।

Rahul Upadhyaya said...

From email:

Very negative thoughts . Appears as if you have nothing good to say about anything Rahul jee. Wherefrom this bitterness comes?

Rahul Upadhyaya said...

आपने रचना पढ़ी और उस पर प्रतिक्रिया दी, इसके लिए आपको धन्यवाद.

रही बात negative thoughts की तो वो तो एक रचनाकार का हक है कि वो जो चाहे उस पक्ष में लिखे, उस पक्ष को उजागर करे. कभी कहे कि ज़िंदगी खूबसूरत है और कभी कहे कि ज़िंदगी एक सज़ा है.

जब नीरज जी लिखते हैं - स्वप्न झरे फूल से, शाख से बबूल के - तब हम उनकी रचना के कायल होते हैं. यह नहीं कहते हैं कि ऐसी दु:ख भरी कविता क्यों लिखी.

मैं नीरज ना सही, पर लिखने का तो हक है.

इस अवसर पर मैं अपनी एक कविता याद दिलाना चाहूँगा.




मैं कवि हूँ
कोई किरदार नहीं
कि एक कुर्ते-पजामें में सिमट जाऊँ




मैं कवि हूँ
कोई सलाहकार नहीं
कि तुम्हें जीवन जीने की राह दिखाऊँ




मैं कवि हूँ
कोई मददगार नही
कि तुम्हारा दु:ख-दर्द मिटाता जाऊँ




मैं कवि हूँ
कोई खानसामा नहीं
जो मेन्यू के मुताबिक
कभी मीठा
कभी खट्टा
तो कभी चटपटा
आईटम पेश करता जाऊँ




मैं कवि हूँ
कविता मेरा शौक है, मेरा पेशा नहीं
और तनिक भी शोक नहीं कि इसमें तनिक भी पैसा नहीं




मैं कवि हूँ
कविता मेरा व्यवसाय नहीं
शब्दों से खेलता हूँ
शब्दों की खाता नहीं
इन्हें बेच कर
खोलना मुझे बैंक खाता नहीं




मैं कवि हूँ
मेरे शब्द बहुरुपी हैं
मैं भी बहुरुपिया हूँ
बातें ज़रुर बनाता हूँ
उनसे बनाता नहीं रुपया हूँ




मैं कवि हूँ
कभी दुनिया की नहीं परवाह की
जब जो अच्छा लगा उस पर वाह की




मैं कवि हूँ
सच कहने से घबराता नहीं
जानता हूँ कि
जिस दम घुटने टेक दूगा
उस पल से मेरा दम घुटने लगेगा




मैं कवि हूँ
जब भी कहता हूँ
सच ही कहता हूँ
लेकिन मैं मेरा ही सच कहता हूँ
ये आवश्यक तो नहीं कि हमारे-तुम्हारे विचार मिले
और ये भी उद्देश्य नहीं कि इसके लिए बधाई मिले




मैं कवि हूँ
जब भी कहता हूँ
सच ही कहता हूँ
लेकिन मैं आज का ही सच कहता हूँ
मुमकिन है कल मैं खुद ही अपनी बात से पलट जाऊँ




समय बहता है,
मैं भी उसके साथ बह जाऊँ
आज यहाँ हूँ,
कल कही और चला जाऊँ




तुम लकीर के फ़कीर मत बनना
मेरे शब्दों से चिपके मत रहना




मैं कवि हूँ
मेरा खुद का कोई ठिकाना नहीं
मेरा कोई भी शब्द अंतिम नहीं




सिएटल,
14 मार्च 2008




सद्भाव सहित,
राहुल

Rahul Upadhyaya said...

From email:

Ref: एक रचनाकार का हक है कि वो जो चाहे उस पक्ष में लिखे, उस पक्ष को उजागर करे. कभी कहे कि ज़िंदगी खूबसूरत है और कभी कहे कि ज़िंदगी एक सज़ा है.
जब नीरज जी लिखते हैं - स्वप्न झरे फूल से, शाख से बबूल के - तब हम उनकी रचना के कायल होते हैं. यह नहीं कहते हैं कि ऐसी दु:ख भरी कविता क्यों लिखी.

*****
[I am not able to write in Hindi because I am using a different computer.]

This is very true. I agree with Rahul Upadhyay.

Some readers are unable to appreciate that poetry is an art, not an autobiography. What is art worth if it cannot change hues? It is a mistake to think that a poet is writing about himself when he writes a verse.

It is like mistaking Pran to be rapist in real life because he played such role as a villain in many films.