तैरता हूँ रोज़
पर किनारा नहीं छूटता
कुछ तो है बात
कि धागा नहीं टूटता
कुछ तो थी बात
कुछ तो था रूतबा
वरना ऐसे ही नहीं कोई
सोमनाथ लूटता
कुछ तो थी कमी
या कोई मजबूरी
वरना ऐसे कैसे कोई
सोमनाथ लूटता
आए थे अकेले
अकेले ही चले जाएंगे
जुड़वों का जनाजा भी
जुड़वा नहीं उठता
परिस्थितियाँ कैसी भी हो
डी-एन-ए स्थितप्रज्ञ है
बीज को है फूटना
तो पत्थरों में भी है फूटता
11 जून 2015
सिएटल । 513-341-6798
1 comments:
तीन महीने के बाद आपकी एक नई कविता पढ़कर अच्छा लगा। कविता बहुत profound है - एक गहरी बात से शुरू होती है और गहरी बात से end होती है। जीवन बंधनों में ही रहता है - यही उसकी true nature है। लेकिन जीवन के end होने पर बंधन टूटते ही हैं और हम अकेले होते हैं।
"तैरता हूँ रोज़
पर किनारा नहीं छूटता
कुछ तो है बात
कि धागा नहीं टूटता"
इन lines ने मुझे एक favorite गाने की याद दिला दी: "यह जो देश है तेरा परदेस है तेरा, तुझे है पुकारा, यह वो बंधन है जो कभी टूट नहीं सकता... मिट्टी की है जो खुशबू तू कैसे भुलाएगा, तू चाहे कहीं जाए लौट के आएगा, नई नई राहों में दबी दबी आहों में, खोए खोए दिल से तेरे, कोई यह कहेगा.. यह जो देस है तेरा परदेस है तेरा
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