खम्भे के इस पार है हरियाली
उस पार न जाने क्या होगा?
रंगों से भरे इस गुलशन को
रंगों से डर लगे तो क्या होगा?
सब साथ चले
सब साथ बढ़े
कुछ छूट गए
कुछ छोड़ गए
जो साथ हैं
वे भी साथी नहीं
अब कौन किसी का क्या होगा?
खिलती थी कलियाँ उमंगों सी
गूँजते थे भँवरे मतवाले
बहती थी कल-कल धाराएँ
चहकते थे पक्षी चौबारे
अब सोज़ नहीं, कोई साज़ नहीं
कवि की कोरी कल्पनाओं से क्या होगा?
पत्तों की सरसराहट होती है
टहनियाँ भी चटकती हैं कहीं-कहीं
धूप भी रस्म-अदाई करती है
जो रहती थी आठ पहर यहीं-यहीं
कर्मों का यह कोई दोष नहीं
कर्मयोगी गुल सा कोई क्या होगा?
सृष्टि का यही एक नियम है
सृष्टा का खेल सारा है
जो बनता है, वो मिटता है
जो जन्मता है, वो मरता है
इसके आगे हर कोई हारा है
पहेलियाँ बूझने से क्या होगा?
30 सितम्बर 2015
सिएटल | 425-445-0827
1 comments:
"खम्भे के इस पार है हरियाली
उस पार न जाने क्या होगा?"
बहुत प्यारी कविता है। सभी बातें sensitive शब्दों में कहीं हैं। रंग, कलियाँ, भँवरे, धाराएं, पक्षी, पत्ते, टहनियाँ, धूप - पढ़कर लगता है किसी सुंदर जगह की description है और मन बहुत शांत हो जाता है। कविता का end भी एक गहरी बात पर हुआ है - बहुत अच्छा लगा!
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