Thursday, March 2, 2017

ख़ुद भीगता नहीं है और भीगो देता है धरा

ख़ुद भीगता नहीं है
और भीगो देता है धरा
कुछ इस तरह से होली
खेलता है आसमां

(जैसे दूर बैठा 
कोई एन-आर-आई
घर भेजता है धन
और आने को कहो
तो नहीं करता है जतन)

और धरती चलती रहती है
आगे बढ़ती रहती है
उससे मिलने के लिए

उसे क्या मालूम
कि वो गिर रही है
घूम रही है
एक धुरी के चारों ओर

और आसमां
फैलता जाता है
फूलता जाता है
खिसकता जाता है 
दूर
और दूर
और दूर

जो है ही नहीं 
उससे मिलना ये कैसा?
आँखों का दिल से
छलावा ये कैसा?

ज्ञान और विज्ञान में 
यही एक बुराई है
मिलन की आस भी
रास आई है

2 मार्च 2017
सिएटल | 425-445-0827
tinyurl.com/rahulpoems 




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4 comments:

विरम सिंह said...

आपकी रचना बहुत सुन्दर है। हम चाहते हैं की आपकी इस पोस्ट को ओर भी लोग पढे । इसलिए आपकी पोस्ट को "पाँच लिंको का आनंद पर लिंक कर रहे है आप भी कल रविवार 05 मार्च 2017 को ब्लाग पर जरूर पधारे ।
चर्चाकार
"ज्ञान द्रष्टा - Best Hindi Motivational Blog

Archana said...

सुंदर कविता

सुशील कुमार जोशी said...

सुन्दर।

तरूण कुमार said...

सुन्दर शब्द रचना