एक अकेला जीवन मेरा
बाक़ी का बचकाना है
आते-जाते मौसम सारे
एक यही सच माना है
चलते चलते बदरा छाए
मैंने समझा छाया है
रूखे-सूखे ही थे अच्छे
भीगे तो मर जाना है
अपनों की ये जात बुरी है
अपनों से क्या पाया है
जलती-बुझती शम्मा सारी
मरता तो परवाना है
अपनी-अपनी क़िस्मत सबकी
कहना घोर छलावा है
हाथों में जब हाथ नहीं हैं
मन को यूँ बहलाना है
अगला-पिछला ब्याज समेत
लौटा दूँ ये सोचा है
आपकी यादें फ़्री में आईं
उनको कब भिजवाना है
राहुल उपाध्याय । 20 अप्रैल 2024 । सिएटल
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