जिसे कमाना है खून-पसीने से ## ##
उसे रास्ते के हर रावण को है ###
हल: हर आना/हराना
जिसे कमाना है खून-पसीने से ## ##
उसे रास्ते के हर रावण को है ###
हल: हर आना/हराना
Posted by Rahul Upadhyaya at 9:02 PM
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एक तरफ़ हो रहा है देवी का ####
और सुन कर ख़बरें है इधर ## ##
हल: आगमन/आग मन
Posted by Rahul Upadhyaya at 9:00 PM
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किसका जश्न मनाया जाता है
किसका स्मृति दिवस होता है
सब सत्ता पर निर्भर होता है
एक लौहपुरुष, एक दुर्गा-तुल्य
सब समर्थकों के जुमले हैं
इंसानों में इनकी गिनती कहाँ
ये विचारधाराओं के पुतले हैं
एक जन्मे, एक मरीं
हज़ारों एक ही दिन कत्ल हुए
जिन्हें चाहा याद किया
जिन्हें चाहा भूल गए
है इतिहासकारों में खोट कहाँ
जब हम ही बावले बनते हैं
अपने ही जीवनकाल की घटनाएँ
जब चुन-चुनकर हम भूलते हैं
राहुल उपाध्याय । 31 अक्टूबर 2020 । सिएटल
कहाँ से दर्द भरे दिन यहाँ उतर आए
बिना मास्क के माशूक़ ना नज़र आए
ख़ुशी की चाह में मैंने उठाये रंज बड़े
मेरा नसीब कि मेरे क़दम जहाँ भी पड़े
महामारी की वहाँ से भी खबर आए
उदास रात है वीरान दिल की महफ़िल है
न हमसफ़र है कोई और न कोई मंज़िल है
दवाओं का न दुआओं का कोई असर आए
(आनंद बक्षी से क्षमायाचना सहित)
राहुल उपाध्याय । 30 अक्टूबर 2020 । सिएटल
Posted by Rahul Upadhyaya at 12:12 AM
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कब कौन बनेगा लीडर
हम नहीं हैं इस पर निर्भर
देश का नाम करेगा रोशन
मेहनतकश हरेक सिटिज़न
हम नहीं हैं इतने मूरख
कि रखें उनसे ये उम्मीदें
एक नन्हें से वोट के बदले
हमें सारी ख़ुशियाँ दे दे
कर दे हमें मालामाल
रंगों से भर दें आँगन
आज मेहनत कर के अपने
घर-बार हम ख़ूब चलाए
कल को भी कर से अपने
जो बन सके वो हम कमाए
क्यूँ कर दें किसी के हवाले
अपना ये सुंदर जीवन
जब तक इस दुनिया में
करने को काम रहेगा
हम नहीं हटेंगे पीछे
पहले हमारा नाम रहेगा
तब तक जूझते रहेंगे
जब तक न मिटे हर अड़चन
(प्रेम धवन से क्षमायाचना सहित)
राहुल उपाध्याय । 29 अक्टूबर 2020 । सिएटल
Posted by Rahul Upadhyaya at 5:11 PM
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तेरी बातों के सिवा चुनाव में रखा क्या है
तू बके सुबह-सुबह, तू बके शाम ढले
तेरा बकना मेरा पकना यूँही प्रचार चले
क़समों की रस्मों में वादे हज़ारों हैं लिखे हुए
हैं मेरे ख्वाबों के क्या-क्या नगर इनमें ढहते हुए
इनमें मेरे आनेवाले ज़माने की तस्वीर है
सियासत की कालिख से लिखी हुई मेरी तक़दीर है
(मजरूह से क्षमायाचना सहित)
राहुल उपाध्याय । 28 अक्टूबर 2020 । सिएटल
--फिर वही बात है
फिर वही बात है चुनाव की
बार-बार चुनाव में चुना करेंगे उन्हें
मासूम सी भीड़ में,
जब कोई दीवाना चले
मास्क लगा लेना तुम,
वैक्सीन न कोई मिले
ये बात है चुनाव की,
चुनाव की बात है
वादे ख्वाब हैं,
दो दिन में टूट जाएँगे
सच न मान लेना इन्हें,
दो दिन में झूठ जाएँगे
ये बात है चुनाव की,
चुनाव की बात है
(गुलज़ार से क्षमायाचना सहित)
राहुल उपाध्याय । 27 अक्टूबर 2020 । सिएटल
मुझको इस रोग की तन्हाई से आज़ाद करो
जिससे कुछ बदले ही नहीं वो चुनाव न दो
रोशनी हो न सकी दिल भी जलाया मैंने
डॉक्टर आया ही नहीं लाख बुलाया मैंने
मैं परेशां हूँ मुझे और परेशां न करो
किस कदर जल्द किया मुझसे किनारा तुमने
कोई भटकेगा अकेला ये न सोचा तुमने
छुप गए हो तो मुझे याद ही आया न करो
(शमीम जयपुरी से क्षमायाचना सहित)
राहुल उपाध्याय । 22 अक्टूबर 2020 । सिएटल
Posted by Rahul Upadhyaya at 8:19 PM
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Labels: parodies, Shamim Jaipuri, YouTube
तीस पतझड़ बीते यहाँ मेरे
हर पतझड़ मिले रंग नए से
कितनी ही बार इन्हें मैं देखूँ
बार-बार लगे रंग चितेरे
यूँ तो सावन-भादो भी आए
घर-बार सब ख़ूब नहाए
बरसते पानी में मदहोश चला मैं
फ़ायर-प्लेस पे फिर जम के तपा मैं
शीत ऋतु भी अतिशय भाई
चारों तरफ़ सफ़ेदी सी छाई
पल-पल बच्चे किलकारी मारें
बर्फ़ फेंके, स्नोमेन सँवारें
ग्रीष्म ऋतु भी भली लगती है
झंडों और आतिश की होड़ लगती है
हर पिकनिक में तरबूज़ कटते
बार्बेक्यू पे भुट्टे सिकते
पर पतझड़ की बात अलग है
निस दिन निस दिन बढ़ती कसक है
एकाकीपन नहीं एकाकी लगता
ये मुझसे, मैं इससे कहता
जीवन की हर उहापोह को
बंधु-बांधव के राग-मोह को
कब किसने कितना रंग बदला
अबकी बार किसने संग छोड़ा
तीस बरस बीते पतझड़ में
रंग बदलते इस उपवन में
भरे-रीते कुम्भ कई-कई सारे
कभी कुछ जीते, कभी कुछ हारे
जीवन का अब हिसाब यही है
लौ तो जलती है पर आग नहीं है
15 सितम्बर 2016
अमरीका में पदार्पण की 30 वीं वर्षगाँठ
कद्दू
जब खाने की जगह
खेलने के लिए
ख़रीदा जाने लगे
समझो
हेलोवीन आ गया है
हरा-भरा पेड़
काट कर
घरों में
सजाया जाने लगे
समझो
क्रिसमस आ गया है
मोमबत्ती
रोशनी नहीं
ख़ुशबू के लिए
जलाई जाने लगे
समझो रईसी आ गई है
राहुल उपाध्याय । 16 अक्टूबर 2020 । सिएटल
Posted by Rahul Upadhyaya at 4:26 PM
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Labels: festivals
ये लफड़ों, ये झगड़ों, ये झड़पों का भारत
ये इनसां के दुश्मन समाजों का भारत
ये मज़हब के झूठे रिवाज़ों का भारत
ये भारत अगर मिट भी जाए तो क्या है
हर एक जिस्म पागल, हर एक रुह प्यासी
विज्ञापन पे खटपट, ट्वीटर पे लड़ाई
ये भारत है या आलम-ए-बदहवासी
यहाँ एक खिलौना है बिटिया की हस्ती
ये बस्ती है मुर्दा-परस्तों की बस्ती
यहाँ पर तो जीवन से है मौत सस्ती
जवानी भटकती है बेरोज़गार बनकर
जवां जिस्म मिटते है लाचार बनकर
यहाँ स्कूल खुलते हैं व्यापार बनकर
ये भारत जहां इंसानियत नहीं है
क़ानून नहीं है, हिफ़ाज़त नहीं है
जहां सच सुनने की आदत नहीं है
ये भारत अगर मिट भी जाए तो क्या है
(साहिर से क्षमायाचना सहित)
राहुल उपाध्याय । 15 अक्टूबर 2020 । सिएटल
Posted by Rahul Upadhyaya at 12:13 AM
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चुपके-चुपके रात-दिन
व्हाट्सेप पे आना याद है
हमको अब तक आपका
इमोजी में शर्माना याद है
सोमवार को लंच पे
या बुध को आधी रात में
आपके नोटिफिकेशन का
धड़धड़ टिंग-टिंगाना याद है
छेड़ देना वो मेरा
माज़ी का क़िस्सा बेसबब
और आपका बेपरवाह
उलझ जाना याद है
होली-दीवाली हो या
हो कोई तीज-त्योहार
वो आपका मुझको
दुआओं में लाना याद है
वो आपकी टाईपिंग के जलवे
और मेरी लड़खड़ाहट
मैं कहूँ कुछ उससे पहले
दूसरा दागना याद है
घंटों-घंटों बात हो
और घड़ी झूठ लगने लगे
घड़ी-घड़ी बाय-बाय
कह के न काटना याद है
कुछ मिनट ही हैं गुज़रे
हमें तुमसे सब कहे
और कितना कुछ हुआ
वो सब बताना याद है
राहुल उपाध्याय । 18 सितम्बर 2020 । सिएटल
Posted by Rahul Upadhyaya at 5:35 PM
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Labels: Hasrat Mohani, parodies
तुम उड़ाती हो
व्याकरण की धज्जियाँ
मैं कुछ नहीं कहता
तुम लिखती हो
रोमन में हिन्दी
मैं कुछ नहीं कहता
वर्तनी
किस चिड़िया का नाम है
तुम नहीं जानती
और मैं
कुछ नहीं कहता
क्या यही प्यार है?
तुम ग़ैर हो
ग़ैर ही रहोगी
फिर भी
अपनों से ज़्यादा
फ़िक्र है तुम्हें मेरी
और मुझे तुम्हारी
क्या यही प्यार है?
हज़ारों मील दूर हो मुझसे
और इतने क़रीब
कि जैसे यह फ़ोन
यह कविता
यह टेक्स्ट
यह पोस्ट
क्या यही प्यार है?
ऐसा भी नहीं कि
हमें ग़म नहीं
दुखों के पहाड़ नहीं
फिर
इतनी ख़ुशी क्यों है?
चेहरे पर मिटाए न मिटे ऐसी हँसी क्यों है?
पाँव में थिरकन क्यों है?
लबों पे गीत क्यों है?
आँखों में चमक क्यों है?
फ़ोटो इतने रंगीन क्यों हैं?
कविताओं में बहार क्यों है?
क्या यही प्यार है?
राहुल उपाध्याय । 12 अक्टूबर 2020 । सिएटल
Posted by Rahul Upadhyaya at 5:10 PM
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Labels: relationship
ये मसर्रत का है किस्सा
कि मर्सिया
नहीं जानता
मैं तो मश्कूर हूँ कि
मेरे हर्फ़ तुमसे मुख़ातिब हैं
मैं हबीब हूँ, आश्ना हूँ, या कुछ भी नहीं
मुझे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता
मेरे लिए इतना ही काफ़ी है कि
मैं तुम्हारे ज़हन में हूँ
तुम होगी कभी
मेरी सिर्फ़ मेरी
इसका भी किया
कोई एहतिमाम नहीं
तुम हो ही ख़ुशबू की तरह
क्यूँ न सबका बराबर
इख़्तियार हो
तुम्हें देखा
तुम्हें चाहा
तुम्हें जी-जान से चाहा
यही मेरी ज़िंदगी
का लब्बोलुआब है
मुशाहदे मुस्तक़्बिल के
तल्ख़ होंगे के शीरीं
पता नहीं
लेकिन होंगे मुस्तक़िल
कोई एहतिमाल नहीं
मरना है एक दिन
और मरूँगा ज़रूर
पर तुम पर न मरा
तो फिर ख़ाक जीया
मैं तुम्हारा अमिताभ नहीं, ना सही
तुम मेरी रेखा नहीं, ना सही
लेकिन एक झूठी-सच्ची कहानी सही
राहुल उपाध्याय । 11 अक्टूबर 2020 । सिएटल
मसर्रत = आनन्द
मर्सिया = शोकगीत
मश्कूर = कृतज्ञ
हर्फ़ = अक्षर
मुख़ातिब = सम्बोधित
हबीब = मित्र
आश्ना = परिचित
एहतिमाम = प्रबंध
इख़्तियार = अधिकार
लब्बोलुआब = निचोड़
मुशाहदे = अनुभव
मुस्तक़्बिल = भविष्य
तल्ख़ = कड़वे
शीरीं = मधुर
मुस्तक़िल = निरंतर
एहतिमाल = संदेह
Posted by Rahul Upadhyaya at 5:57 AM
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Labels: Rel
इतवारी पहेली:
देश पर है जिनकी अमिट छाप, ### ##
पूरी तरह से सार्थक है नाम उनका ####
दोनों पंक्तियों के अंतिम शब्द सुनने में एक जैसे ही लगते हैं। लेकिन जोड़-तोड़ कर लिखने में अर्थ बदल जाते हैं। हर # एक अक्षर है। हर % आधा अक्षर।
जैसे कि:
हे हनुमान, राम, जानकी
रक्षा करो मेरी जान की
ऐसे कई और उदाहरण/पहेलियाँ हैं। जिन्हें आप यहाँ देख सकते हैं।
Https://tinyurl.com/RahulPaheliya
आज की पहेली का हल आप मुझे भेज सकते हैं। या यहाँ लिख सकते हैं।
सही उत्तर न आने पर मैं अगले रविवार - 18 अक्टूबर को - उत्तर बता दूँगा।
राहुल उपाध्याय । 11 अक्टूबर 2020 । सिएटल
हल: अमित आभ/अमिताभ
Posted by Rahul Upadhyaya at 11:52 PM
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Labels: riddles, riddles_solved
तेरे मेरे बीच में
कैसा है ये टेंशन अंजाना
मैंने नहीं जाना
तूने नहीं जाना
कितनी ज़ुबानें बोले लोग हमजोली
क्यूँ नहीं बोले प्रेम की बोली
बोले जो शमा परवाना
नींद न आए मुझे चैन न आए
लाख जतन करूँ समझ न आए
लड़ता है क्यूँ ज़माना
(आनंद बक्षी से क्षमायाचना सहित)
राहुल उपाध्याय । 8 अक्टूबर 2020 । सिएटल
Posted by Rahul Upadhyaya at 9:24 PM
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Labels: Anand Bakshi, parodies, Video, YouTub