Sunday, October 11, 2020

झूठी-सच्ची कहानी

ये मसर्रत का है किस्सा

कि मर्सिया 

नहीं जानता

मैं तो मश्कूर हूँ कि

मेरे हर्फ़ तुमसे मुख़ातिब हैं


मैं हबीब हूँ, आश्ना हूँ, या कुछ भी नहीं 

मुझे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता 

मेरे लिए इतना ही काफ़ी है कि 

मैं तुम्हारे ज़हन में हूँ 


तुम होगी कभी

मेरी सिर्फ़ मेरी

इसका भी किया

कोई एहतिमाम नहीं 


तुम हो ही ख़ुशबू की तरह

क्यूँ न सबका बराबर

इख़्तियार हो 


तुम्हें देखा

तुम्हें चाहा

तुम्हें जी-जान से चाहा

यही मेरी ज़िंदगी 

का लब्बोलुआब है


मुशाहदे मुस्तक़्बिल के

तल्ख़ होंगे के शीरीं 

पता नहीं 

लेकिन होंगे मुस्तक़िल 

कोई एहतिमाल नहीं 


मरना है एक दिन

और मरूँगा ज़रूर 

पर तुम पर न मरा

तो फिर ख़ाक जीया


मैं तुम्हारा अमिताभ नहीं, ना सही

तुम मेरी रेखा नहीं, ना सही

लेकिन एक झूठी-सच्ची कहानी सही


राहुल उपाध्याय । 11 अक्टूबर 2020 । सिएटल 


मसर्रत = आनन्द 

मर्सिया = शोकगीत

मश्कूर = कृतज्ञ

हर्फ़ = अक्षर 

मुख़ातिब = सम्बोधित 

हबीब = मित्र

आश्ना = परिचित 

एहतिमाम = प्रबंध 

इख़्तियार = अधिकार

लब्बोलुआब = निचोड़ 

मुशाहदे = अनुभव

मुस्तक़्बिल = भविष्य 

तल्ख़ = कड़वे

शीरीं = मधुर

मुस्तक़िल = निरंतर 

एहतिमाल = संदेह 


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