तीस पतझड़ बीते यहाँ मेरे
हर पतझड़ मिले रंग नए से
कितनी ही बार इन्हें मैं देखूँ
बार-बार लगे रंग चितेरे
यूँ तो सावन-भादो भी आए
घर-बार सब ख़ूब नहाए
बरसते पानी में मदहोश चला मैं
फ़ायर-प्लेस पे फिर जम के तपा मैं
शीत ऋतु भी अतिशय भाई
चारों तरफ़ सफ़ेदी सी छाई
पल-पल बच्चे किलकारी मारें
बर्फ़ फेंके, स्नोमेन सँवारें
ग्रीष्म ऋतु भी भली लगती है
झंडों और आतिश की होड़ लगती है
हर पिकनिक में तरबूज़ कटते
बार्बेक्यू पे भुट्टे सिकते
पर पतझड़ की बात अलग है
निस दिन निस दिन बढ़ती कसक है
एकाकीपन नहीं एकाकी लगता
ये मुझसे, मैं इससे कहता
जीवन की हर उहापोह को
बंधु-बांधव के राग-मोह को
कब किसने कितना रंग बदला
अबकी बार किसने संग छोड़ा
तीस बरस बीते पतझड़ में
रंग बदलते इस उपवन में
भरे-रीते कुम्भ कई-कई सारे
कभी कुछ जीते, कभी कुछ हारे
जीवन का अब हिसाब यही है
लौ तो जलती है पर आग नहीं है
15 सितम्बर 2016
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