अभी तो फूल भी सूखे नहीं हैं
और याद धूमिल हो जाती है
डी-पी की माला भी
आँख नहीं नम कर पाती है
वक़्त में है कुछ ऐसी दवा
कि बड़े से बड़ा दु:ख खा जाती है
रोते-बिलखते बच्चे को भी
किलकारियों से भर जाती है
तुम ही ख़ुद शर्माते हो कि
तुम्हें ये क्या हो गया
अभी तो अस्थियाँ बही नहीं
और दु:ख हवा हो गया
कृष्ण का जन्म, गणेश का पर्व
सब के सब मना रहे हो
गए हुए दिन हुए छत्तीस नहीं
और छत सर पर उठा रहे हो
रोकने-टोकनेवाला कोई नहीं
जो मन में आए किए जा रहे हो
बरसी-छ: माही कुछ तो करते
फिर जो चाहे तुम वो करते
निर्बाध जब हो जाए जीवन
लोक-लाज से कब वो डरता है
अभी तो फूल भी सूखे नहीं हैं
राहुल उपाध्याय । 11 सितम्बर 2021 । सिएटल
1 comments:
बहुत मार्मिक , जाने वाले के साथ कुछ समय ही शोक मनाते हैंऔर फिर इस दुनियादारी में लग जाते हैं ।
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